________________
२१८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
----0-0---0----0-0-0-0
मनुष्य को पूर्णता तथा समरूपता प्राप्त करने के योग्य बनाती है एवं उसे मोक्ष की अनुभूति कराती है. केवल ऐसी मोक्ष की धारणा के द्वारा ही आकार तथा सामग्री, सत् तथा असत्, शुभ तथा अशुभ, तर्क तथा सुख, सामाजिक तथा वैयक्तिक कल्याण के विरोध को दूर किया जा सकता है. नैतिकता के आदर्श के रूप में मोक्ष हमें आकार तथा सामग्री, तर्क तथा सुख देता है. इस प्रकार जनवाद के अनुसार मोक्ष ही एक मात्र नैतिक आदर्श है. इस दृष्टिकोण को सामने रखते हुए हमें जैन आचारशास्त्र का अध्ययन करना चाहिए. संन्यासी अथवा साधु की प्राचार-मीमांसा जैनसिद्धांत के अनुसार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह इन पांच महाव्रतों का अनुसरण करना मोक्ष का साधन है. जैनधर्म में इन्हीं पांच नियमों को साधुओं के आचार के आधारभूत नियमों के रूप में स्वीकार किया गया है. अहिंसा का अर्थ हर प्रकार की हिंसा से बचना है, चाहे वह हिंसा सूक्ष्म से सूक्ष्म अदृश्य जीवों की हो, चाहे वह पशुओं की हो और चाहे मनुष्यों की. हिंसा का अर्थ केवल शरीर द्वारा हिंसा करना ही नहीं है, अपितु मन और वचन द्वारा भी हिंसा करना है. जब जैन साधु अहिंसा का पालन करता है, वह हर प्रकार से यही चेष्टा करता है कि इस महाव्रत का यथासम्भव निरपेक्ष रूप से अनुसरण करे और मन, वचन तथा काया से किसी भी जीवधारी को दुःख न दे. यह तीन प्रकार की अहिंसा तीन गुप्तियों पर आधारित मानी जाती है. दूसरे शब्दों में मन, वचन तथा कर्म द्वारा महाव्रतों के पालन करने को तीन गुप्तियां कहा गया है. हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि सभी महाव्रतों का मूल आधार अहिंसा महावत है. इस अहिंसा का निरपवाद अनुसरण करने के लिये ही अन्य चारित्र संबंधी नियमों को स्वीकार किया गया है. सत्य बोलना इसलिये आवश्यक है कि किसी के प्रति झूठ बोलने से उस व्यक्ति को कम से कम मानसिक आघात अवश्य पहुँचता है. यदि कोई व्यक्ति सत्य की अवहेलना करके केवल अहिंसा को अपनाने की चेष्टा करे तो वह कदापि ऐसा नहीं कर सकता. असत्य बोल कर हम निःसंदेह वचन द्वारा हिंसा करते हैं और दूसरे व्यक्ति के मन को दु:खी करते हैं. इसी प्रकार किसी व्यक्ति की संपत्ति को चुराना एवं तीसरे महाव्रत को भंग करना हिंसा है. जिस व्यक्ति की सम्पत्ति चुराई जाती है, निःसंदेह उसको मानसिक आघात पहुँचता है. अतः अस्तेय भी अहिंसा पर आधारित है. आधुनिक विज्ञान भी इस दृष्टिकोण को पुष्ट करता है कि ब्रह्मचर्य पर न चलने से अर्थात् काम की तृप्ति से असंख्य जीवों की हिंसा होती है. अतः ब्रह्मचर्य अहिंसा को पुष्ट करने का साधन है. अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति न रखना है. यह स्पष्ट है कि जो व्यक्ति आवश्यकता से अधिक धन-धान्य आदि रखता है, वह निःसंदेह उन निर्धनों और भूखों को जीवन की आवश्यकताओं से वंचित रख रहा है, जिनकी रक्षा करने के लिये अतिरिक्त धन और धान्य का सदुपयोग किया जा सकता है. अतः अपरिग्रह का अनुसरण करना अहिंसात्मक जीवन को पुष्ट करना है. साधुओं का आचार पूर्णतया अहिंसात्मक माना गया है. इसलिये प्रत्येक जैन साधु को पाँच महाव्रतों और तीन गुप्तियों के साथ-साथ निम्नलिखित पाँच समितियों का भी अनुसरण करना पड़ता है :-(१) ईर्यासमिति अर्थात् जीवों की हिंसा से बचने के लिये सावधानी से चलना. (२) भाषासमिति-वचन द्वारा हिंसा से बचने के लिये भाषा पर नियंत्रण रखना. (३) एषणासमिति–साधु द्वारा भोजन तथा जल का सावधानी से निरीक्षण किया जाना और यह निश्चित करना कि जो अन्न तथा जल उसे दिया जा रहा है वह उसी के लिये तो प्रस्तुत नहीं किया गया. (४) आदान-निक्षेपणसमिति- सूक्ष्म जीवों को आघात न पहुँचाने की दृष्टि से नित्य की आवश्यक वस्तुओं को सावधानी से प्रयोग में लाना. (५) परिष्ठापनिका-समिति-अनावश्यक वस्तुओं को सावधानी से विसर्जित करना. ये पाँच समितियां साधु को अहिंसा के मार्ग पर चलने में सहायता देती हैं और यह प्रमाणित करती हैं कि साधु का जीवन हर प्रकार से एक तटस्थता का जीवन होना चाहिए । साधु-आचार की यह तटस्थता इसलिये आवश्यक है कि इसी के द्वारा वह हर प्रकार के राग-द्वेष से मुक्त हो सकता है. जब तक साधु संसार के द्वन्द्वों से ऊपर उठ कर निरपेक्ष रूप से अहिंसा का पालन नहीं करता तब तक वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता. साधारणतया अहिंसा का अर्थ अन्य प्राणियों की रक्षा भी माना जाता है. यही कारण है कि अधिकतर जैन गृहस्थ अथवा श्रावक पक्षियों को दाना डालते
Jain Education International
esse Only
www.jainelibran org