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डा० ईश्वरचन्द्र : जैनधर्म के नैतिक सिद्धान्त : २६६
हैं और बीमार पशु-पक्षियों के लिये चिकित्सालय आदि बनवाते हैं. इस प्रकार दया को अहिंसा के समकक्ष स्वीकार किया जाता है. किन्तु जैनवाद में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में "तेरापन्थ " नाम का मत अहिंसा की विचित्र व्याख्या करता है और उसे जीवन की रक्षा से पृथक मानता है. अहिंसा की इस परिभाषा का निष्पक्ष विश्लेषण करना आवश्यक है, क्योंकि अहिंसा ही जैन नैतिकता का आदर्श है. जहां तक साधु आचार का सम्बन्ध है निरपेक्ष दृष्टि पर आधारित अहिंसा की व्याख्या विशेष महत्त्व रखती है.
निरपेक्ष दृष्टि से जो अहिंसा की व्याख्या की जाती है, वह निःसंदेह जनसाधारण की परिधि से बाहर है और उसके अनुसार साधारण हिंसा और अनिवार्य हिंसा में कोई भेद नहीं है. इस दृष्टि से हिंसा हर अवस्था में और हर समय पर हिंसा ही है. यदि एक बार हम सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि कुछ मानवीय जीवों की रक्षा करने के लिये अनन्त सूक्ष्म जीवों की हिंसा को आध्यात्मिक दृष्टि से अनैतिक न समझा जाय. इस बात को तो स्वीकार किया जा सकता है कि इस प्रकार की निरपेक्ष अहिंसा का पालन करना एक बुद्धिमान् मनुष्य के लिये इसलिए असम्भव है कि वह सूक्ष्म जीवों के संहार के विना अपने आपको जीवित नहीं रख सकता. किन्तु तस्वात्मक आधार पर इस प्रकार की सापेक्ष हिंसा को अहिंसा कहना और ऐसे कर्म को मोक्ष की दृष्टि से संगत स्वीकार करना भी एक भूल है. तेरापंथियों की यह धारणा है कि मनुष्य विवश होकर सापेक्ष अहिंसा के मार्ग को अपनाता है और उसका ऐसा करना मोक्ष मार्ग के अनुकूल नहीं कहा जा सकता. उनकी यह धारणा है कि आध्यात्मिक जीवन में तथा व्यावहारिक जीवन में भेद है. मनुष्य को यह स्वीकार करना चाहिए कि वह निर्बल है और वह हर समय आध्यात्मिक नैतिकता का पालन नहीं कर सकता. निरपेक्ष अहिंसा, जो कि सूक्ष्म तथा स्थूल हर प्रकार के जीवों की हिंसा को समान रूप से अनैतिक मानती है, साधुजीवन का ही आदर्श बन सकती है. अहिंसा की यह धारणा तेरापंथ के अनुसार सूक्ष्म जीवों के प्रति तथा मनुष्यों के प्रति दया के भेद को स्वीकार नहीं करती.
यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि मनुष्य निरपेक्ष रूप से अहिंसा को नहीं अपना सकता. महात्मा गांधी ने भी निरपेक्ष अहिंसा के विषय में इस प्रकार के विचार प्रकट किए हैं. उनके शब्दों में "निरपेक्ष एवं पूर्ण अहिंसा का अर्थ सभी जीवों के प्रति हर प्रकार की दुर्भावना से मुक्त रहना है और इसलिए उसके क्षेत्र में मानवेतर भयानक पशु तथा कीड़े भी सम्मिलित हो जाते हैं." एक और स्थान पर गांधीजी ने कहा है- "अहिंसा एक अत्यन्त भयानक शब्द है. मनुष्य बाह्यात्मक हिंसा के विना जीवित ही नहीं रह सकता. वह खाते, पीते, बैठते, उठते समय अनायास ही किसी-न-किसी प्रकार की हिंसा करता रहता है. उसी व्यक्ति को अहिंसा का पुजारी मानना चाहिए, जो इस प्रकार की हिंसा से निवृत्त होने का सतत प्रयास करता है, जिसका मन दया से पूर्ण है और जो सूक्ष्म जीवों की हिंसा की भी इच्छा नहीं करता. ऐसे मनुष्य का नियन्त्रण तथा उसके हृदय की कोमलता सदैव प्रवृद्ध होते चले जायेंगे. किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि कोई भी जीवित प्राणी बाह्यात्मक हिंसा से पूर्णतया मुक्त नहीं है."
महात्मा गांधी ने तो निरपेक्ष अहिंसा को असम्भव मानकर सापेक्ष अहिंसा को ही सामान्य मनुष्य के लिये आदर्श माना है. उन्होंने अपने लेखों तथा भाषणों में अनेक बार यह अभिव्यक्त किया है कि उनकी अहिंसा एक विशेष अहिंसा है. वह उन जीवधारियों के प्रति दया को अहिंसा नहीं मानते जो मनुष्यों का भक्षण कर जाते हैं किन्तु तेरापन्थी साधु यह मान कर चलते हैं कि विरक्त संन्यासी के लिए निरपेक्ष अहिंसा का पालन करना नितान्त आवश्यक है. इसलिये वे आध्यात्मिक दृष्टि से जीवरक्षा को अहिंसा नहीं मानते. उनका कहना यह है कि जीवरक्षा व्यावहारिक दृष्टि से सराहनीय मानी जा सकती है किन्तु आध्यात्मिक एवं मोक्ष की दृष्टि से उसे धर्म स्वीकार नहीं किया जा सकता है. इस मत के वर्तमान आचार्य तुलसी ने दया की परिभाषा करते हुए लिखा है "दया का अर्थ अपनी तथा अन्य प्राणियों की आत्मा की अधर्म से रक्षा करना है. व्यावहारिक जीवन में जीव की रक्षा को भी दया कहा जाता है."
हम यह कह सकते हैं कि जब आध्यात्मिक पूर्णता की तुलना में दया का मूल्यांकन किया जाता है तो वह अहिंसा की अपेक्षा न्यून स्तर का मूल्य प्रमाणित होती है. अतः इस मत के अनुसार जो व्यक्ति दया से प्रेरित होकर दूसरे के प्राणों
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