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डा० ईश्वरचन्द्र : जैनधर्म के नैतिक सिद्धान्त : २६७
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मोक्ष को ही एक मात्र पुरुषार्थ मानता है और मोक्ष की यह तत्त्वात्मक धारणा ही उसे पाश्चात्य आचारशास्त्र के सिद्धान्तों की अपेक्षा उत्कृष्ट प्रमाणित करती है. जैनवाद के अनुसार मोक्ष की धारणा एक ऐसा अमूर्त आदर्श नहीं है, जो कि मनुष्यों को केवल इच्छाओं का अन्त करने की आज्ञा दे, और न ही वह पश्चिमी सुखवाद की भाँति इच्छाओं की निरकुंश तृप्ति को वांछनीय स्वीकार करता है. जब मोक्ष की प्राप्ति होती है तो व्यक्ति अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त दर्शन और अनन्त वीर्य प्राप्त करने के कारण पूर्णत्व का अनुभव करता है और उसकी इच्छाएं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं. इस प्रकार शाश्वत और व्यापक आत्मानुभूति में कान्ट द्वारा प्रस्तुत तत्मिक आकार तथा पश्चिमी सुखवाद द्वारा प्रतिपादित सुख की भौतिक सामग्री दोनों सम्मिलित होते है. मोक्ष निःसन्देह एक तत्मिक एवं प्रत्ययात्मक धारणा है और साधारण दृष्टि से भौतिक नहीं कहा जा सकता, किन्तु इसके साथ ही साथ मोक्ष की अनुभूति, जिसका अर्थ आत्मानुभूति है, नैतिकता को विश्वव्यापी आत्मा से सम्बन्धित करती है और इस व्यापक आत्मानुभूति में तर्क तथा सुख दोनों का समन्वय हो जाता है. यह सत्य है कि एक पूर्ण नैतिक सिद्धांत के लिये एक ऐसी तत्त्वात्मक धारणा की आवश्यकता है, जो आदर्श होते हुए भी वास्तव में अनुभूत किया जा सके और जो व्यापक होते हुए भी अन्तरात्मक हो. यद्यपि कान्ट ने सद्गुण के आन्तरिक अंग पर बल दिया है, तथापि उसने एक बाहरी ईश्वर की मान्यता को अपने नैतिक सिद्धांत को पूर्ण बनाने के लिये ही स्वीकार किया है. कान्ट एक व्यापक दृष्टिकोण को ही आदर्श दृष्टिकोण मानता है और कहता है कि हमें अपने आपको तथा अन्य मनुष्यों को कदापि साधन न मान कर स्वलक्ष्य-साध्य ही स्वीकार करना चाहिए. वह एक उद्देश्यात्मक साम्राज्य स्थापित करने की चेष्टा करता है, यद्यपि उसका यह उद्देश्यवाद कुछ अस्पष्ट है. तथापि कान्ट की धारणा है कि सदाचार तथा सुख दोनों मिल कर पूर्ण शुभ का निर्माण करते हैं, तथापि वह यह स्पष्ट नहीं करता कि इन दोनों का परस्पर समन्वय कैसे किया जा सकता है ? इस जटिल समस्या को सुलझाने के लिये वह सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् ईश्वर की धारणा को स्वीकार करता है, जो प्रत्येक व्यक्ति को उसके सदाचार के अनुरूप सुख प्रदान करने वाला है. यह एक विचित्र बात है कि वह कान्ट, जो उद्देश्यात्मक साम्राज्य का समर्थक है और जो इस बात पर बल देता है कि मनुष्य स्वलक्ष्य है, वह स्वयं ईश्वर को सदाचार तथा सुख के समन्वय के उद्देश्य की पूर्ति के लिये साधन मात्र स्वीकार करता है. कान्ट मनुष्य को स्वलक्ष्य मानते हुए भी सदाचार के आत्मसंगत सिद्धांत को इसलिये संगत प्रमाणित नहीं कर सका क्योंकि वह आत्मानुभूति के सिद्धांत से अनभिज्ञ था, वह मोक्ष की धारणा का ज्ञान नहीं रखता था. पश्चिमीय नैतिक सिद्धांत, नैतिकता को सापेक्ष स्वीकार करते हैं और उसे एक विरोधाभास मानते हैं. ब्रैडले ने अपनी पुस्तक 'नैतिक अध्ययन' (Ethical Studies) में लिखा है ....... 'नैतिकता में विरोधाभास तो है ही, वह हमें उस वस्तु को अनुभूत करने का आदेश देती है जिसकी (पूर्ण) अनुभूति कदापि नहीं हो सकती और यदि उसकी अनुभूति हो जाय तो वह स्वयं नष्ट हो जाती है. कोई भी व्यक्ति कभी भी पूर्णतया नैतिक नहीं रहा है और न भविष्य में हो सकता है. जहां पर अपूर्णता नहीं है, वहां पर कोई नैतिक औचित्य नहीं हो सकता. नैतिक औचित्य एक विरोधाभास है.' क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति की धारणा पाश्चात्य विचारकों को ज्ञात नहीं है, इसलिये वे इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि नैतिकता के विरोधाभास को ऐसे स्तर पर पार किया जा सकता है, जो कि तर्क और बुद्धि से ऊंचा स्तर है. कान्ठ तत्त्वात्मक दृष्टि से तो अनुभवातीत सिद्धांत प्रस्तुत करता है. किन्तु वह अनुभवातीत नैतिक सिद्धांत (Transcendentalism in Ethics) प्रस्तुत नहीं कर सका. यही कारण है कि उसे धर्मवाद का आश्रय लेना पड़ा और बाह्यात्मक तथा वैयक्तिक ईश्वर की धारणा को स्वीकार करना पड़ा. जैनवाद मनुष्य के विरोधाभास और उसकी अपूर्णता से सन्तुष्ट नहीं रहता. उसके अनुसार मनुष्य स्वभाव से विरोधाभास से परे है और उसमें पूर्णत्व निहित है. उसके जीवन का उद्देश्य नैतिक तथा आध्यात्मिक अनुशासन के द्वारा इस अव्यक्त पूर्णत्व को व्यक्त करना है. मनुष्य में विरोधाभास नहीं है. हमें ऐसी नैतिकता को स्वीकार ही नहीं करना चाहिए, जो एक विरोधाभास हो. बडले ने स्वयं स्वीकार किया है"मनुष्य विरोधाभास से कुछ अधिक है." मेरी यह धारणा है कि यह आधिक्य वह आध्यात्मिक क्षमता है, जो
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