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मुनि कान्तिसागर : लोकाशाह की परंपरा और उसका अज्ञात साहित्य : २४१
जसवंतजी नां पाटवी रूपसिंह जी चिरं जीजो गौतम नी परि गाजता भविजन श्रीगुरु बंदी || कलशलो
तीरथ नायक रूप ऋषिजी जीवोजी दोइ वरहरी । जसवंतजीनी पाटि प्रतपइ श्री रूपसींह तेजि करी ॥ जसवंतजी नां शिष्य दीपइं भोजराज चचडती कला । तास शिष्य मुनि बाघ प्रणमि पाय पंकज निर्मला ॥ ॥ इति श्री भास समाप्त ||
सतीचंद कृत दामोदर छंद
दुहा
परम पुरुष पय अनुसरी समरूं श्रीगुरू नाम, आचारय गुण गावतां सी विछत काज ॥११ वीर जिन मह भिर गति दोय हजार वरीस, विक्रें संवत वेत सुत पनरसें अठावीस |२| लकें पुस्तक वांचा करी जाण्यो श्रीजिनधर्म, जीव दया चित में वसी टाल्यों मोह भ्रम | ३| लुंकागछ जगमें प्रगट पनरसें इकतीस भाणें संजम आदरों पोटी मन जगीस |४| प्रागवंस भीमो जती नुंन भोम जगमाल सरवा रूप मुणिंद पटि जीवराज उसवाल |५| सात में पाटि ए वनमुं मरुधर देश निधांन, तिहां मण्डल अजमेर गढ महिमा ईक्कउ ठांन |६|
छंद अडयल्ल
मैं देस नगर अविचल अविठांण गीरवर मेर सिषर उपमांन । सषर कोट प्राकार सुजाण भीतर कोट बाहिर जग ठांण ॥७॥ विषम ठाम गढ विमानं दरवाजा उंचा असमानं बाजेंपीर कुंवा जलपाई केसी सा रची हार गलाई ८ नौबति सबद सदा वरदाई साहाजिहांन तणी जिहां राई । अदलि नाम काहावें न्याई चोडी चाड नहीं दुष दाई | ε दिन दुनि सबको मन भाई आरियण कोइ नहीं तीन ठांइ ।
तीन धन धमी जीण मोटा पाषडी नर दिसें छोटा ||
नानाविध मंडप तिहां छाया नित्य नित्य उछव मंगल माया ।। ११
दुहा
वावि सरोवर कूंप जल पोहकरणी बोधाल । जलनिधि मोटा झालरां चोषंडी चौसाल ।। १२ घरि घरि कलस सोहामणां तोरण घर घर बार। सपर बंध प्रासाद पर धजा सुरंग नीहार ।। १३
छंद भुजंगप्रया
जिहां बाग वाडी बगीचे वणाए जिहां रंग नाटिक गीत सुहाए ।
जिहां दिज दुनी पढ़े छत्र नीका जिहां वस्त्र अंबार व्यापार टीका ॥१४
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