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२४२ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
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जिहां बहुधां नायकी जैन देवा जिहां जैन संषीवे संषी केवां । जिहां व्रन प्यारे वसें छत्र रेवां जिहां धर्म सोभा चढी साधरेवा ॥१५ जिहां चोहटा विच नीकी विराजे जिहां साइ द्रव्येसरी नंद छाजे । जिहां मस्त हाथी की मेघमाला जिहां जो जानें की कान काला ॥१६ जिहां असुं चांपलची मान वाला जिहां ऊंट असवारी जीनसाला । जिहां उसवंस महाराज राजें जिहां भ्रम नीसांण जाण वीर गाजे ॥१७ किषु नागरी जोपुरी जोत ठांगी की धग लीला की इस बाणी । जिहां पोषधसाला आछि मिठाई जिहां साह रतन वसें धमधारी ।।१८ सदा साधवा साधवी प्रेम मत्तै भाया सील दानि दया रंग सतं ।
कीधुं उपमांन कामदेवा विचारी की अंन धनेंसरां व्रतधारी ॥ १६
दुहा
तस घरणी गुण आगलां सतियां सिर सिरदार। रतनादे लिषमी जिसी सोभा गुण गुणकार ।। २० तस नंदन च्यारे सरस तिण में एक प्रमाण दामोदर महिमा निलों सोभागी महिमांन ॥ २१ संवत सोल निवासी रूपा गुर गुणधार । गढ अजमेर समासऱ्यां सब जीवन सुषकार ॥ २२
छंद हाटकी
है मगर सागर जागर आगम श्रावक रंग सुरंग कीयं । पाटबर अन सु धन धना धन जाचिक जिन बहु दान दीयं ॥ कुमर दामोदर पुन्य जिसों दर बंदि सदगुर पाटबीयं । अमृतन रस वाणी सुगुरु वषांणी सुमतां संयम सार दीयं ॥ विहुल भमकार असार तसो जग जोवन संजम विन थयं ॥ लक्ष्मी सुपन तरी भोग किसो अवा जिसो पष चंदवीयं । सुण उपदेश करे उर वंदण आयो घर वैराग लीयं ॥ अमृत रस वाणी सुगुरू वषांणी सुमता संयम सार दीयं । माता पग लागी कहै सुवाच षिण द्यौ उनमति मुझ मान हियं ॥ सुगहि कुलवंती उहि कुलमंडण ए लषिण परवार हियं ।
कीजें घर घरणि सुकल उदारणि भोगवी सुष वाल कीयं ॥ अमृत रस वाणी सुगुरू वषांणी सुमता संजम सार दियं । वलती कहे कुमर पाप तर्ज सव मारग मोष चित रचीयं ॥ समभाव मात पिता गुण सुंदर दीधी उनमति सुध कीयं । सव संघ विचारी संयमधारी कीसनगढ दीषा सवियं ||
अमृत रस कणी
चपल चपल तुरंगम तेज मगल मे मत घटा रचियं । कारथ पायक लायक लायक धोउ उदधि विनाद कीयं ॥ धपमप धपमप बजें मदल सजे चचपट चचपट ताल वियं भरं भर्रर किन्नरानदन फेरी झणणं कि झणणं कित विण विण विवयं । संवत निन्यासी मान विलासी जेठ सुदि पांचम लखीयं ॥
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