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शान्ता भानावत : तिलोकऋषिजी की काव्यसाधना: १६६
जैन आचार के अनुसार चौमासा (वर्षावास) के अतिरिक्त जैन सन्त के लिए एक स्थान पर अधिक ठहरना निषिद्ध है. जैन सन्त की चरण-गंगा सतत प्रवहमान रहने में ही आनन्द और तृप्ति का अनुभव करती है. दीक्षा लेते ही कवि तिलोक अपने गुरु अयवन्ताऋषिजी के साथ विहार करते रहे. अपने गुरु के साथ ही कवि ने जावरा, शुजालपुर, प्रतापगढ़, शाजापुर, भोपाल, बरडावदा आदि स्थानों पर चातुर्मास किये. सं० १९२२ में अयवन्ता ऋषि जी देवलोकवासी हुए तब से कवि स्वतन्त्र चातुर्मास करने लगा. कवि के ये चातुर्मास मालवप्रदेश तक ही सीमित न रहे. एक ओर उसने बागड़ प्रदेश के धरियावद क्षेत्र को स्पर्श कर पिछड़ी जाति के लोगों, भीलों, मीणों आदि को सच्चा जीवन जीने की कला सिखाई तो दूसरी ओर दक्षिण भारत के अछूते क्षेत्रों को अपनी पद-रज से पवित्र कर विपरीत श्रद्धालु लोगों को धर्म का मूल तत्त्व बताया. इसी तत्त्वसंधान में एकान्त लीन रहने वाला यह कवि ३६ वर्ष की अल्पायु में ही इस लोक से चल बसा. अन्तिम दिनों में कवि तीव्र शिरोवेदना और भयंकर व्याधि से पीड़ित रहा. सं० १९४० में श्रावण कृष्णा द्वितीया, रविवार को अहमदनगर में इस सन्त कवि ने मानवलीला संवरण की. श्री तिलोक-रत्न-स्थानकवासी जैन धार्मिक परीक्षा बोर्ड, पाथर्डी, आज भी इस ज्ञानरत साधक की यशःसुरभि चारों ओर बिखेर रहा है.
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काव्य-साधना
तिलोकऋषि का जीवन जितना साधनामय और ज्ञानरत था, उनका काव्य उतना ही भावनामय और संगीत-तत्त्व से पूर्ण. उन्होंने अपनी काव्य-आराधना सहज भाव से की. जहाँ कारीगरी है वहाँ भी उनका अकृत्रिम संत-स्वभाव ही आगे रहा है. कविता करना उनका व्यवसाय नहीं था, उनका व्यवसाय तो था लोकमानस को प्रबुद्ध करना. इस लोकजागृति और आत्मोन्नति में काव्य जितना सहायक होता, कवि उस अनुपात में उसे आत्मसात कर आगे बढ़ता. दूसरे शब्दों में ये सन्त पहले थे, कवि बाद में. कवि तिलोक ऋषि ने विपुल परिमाण में लिखा. जन-साधारण के लिये भी लिखा और विद्वनमंडली के लिये भी लिखा. स्वान्तःसुखाय भी लिखा और लोकहिताय भी. प्रबन्धकाव्य भी लिखा और मुक्तक भी. स्थूल रूप से उनकी काव्यसामग्री को दो भागों में बाँटा जा सकता है(१) रसात्मक कृतियाँ और (२) कलात्मक कृतियाँ. रसात्मक कृतियों को सामान्यतः तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है. (क) स्तवनमूलक (ख) आख्यानमूलक (ग) औपदेशिक, कलात्मक कृतियों को भी दो भागों में रखा जा सकता है (क) चित्रकाव्यात्मक और (ख) गूढार्थमूलक. यहाँ प्रत्येक का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है. (१) रसात्मककृतियाँ ये कृतियाँ विशुद्ध साहित्यिक रसबोध की दृष्टि से रची गई हैं. इनमें कवि की अनुभूति, उसका लोकनिरीक्षण और गेय व्यक्तित्व समाविष्ट है. साधारणतः संत कवियों के सम्बन्ध में माना जाता है कि वे अधिक पढ़े लिखे नहीं होते. जो कुछ आत्मानुभव करते उसे ही शब्दों का रूप दे देते. इसलिये वहाँ कला के दर्शन नहीं होते. पर हमारा आलोच्य कवि तिलोक ऋषि इस परम्परागत अर्थ में सन्त कवि नहीं था. वह आगमों का पंडित, संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, राजस्थानी
आदि भाषाओं का विद्वान्, शास्त्रीय ज्ञान का धनी, विभिन्न छन्दों का जानकार तथा लोकप्रचलित रीति-रिवाजों, विश्वासों एवं परम्पराओं का ज्ञाता था. यही कारण है कि उसकी रचनाओं में एक ओर संत कवि का सारल्य है तो दूसरी ओर शास्त्रज्ञ कवि का पाण्डित्य. उनसे निरा निवृत्तिमूलक उपदेश नहीं मिलता वरन् प्रवृत्तिमूलक रसग्रहण भी होता है. ये रसात्मक कृतियाँ तीन प्रकार की हैंस्तवनमूलक भारतीय साधनामार्ग में नामस्मरण एवं ईश्वर-स्तुति का बड़ा महत्त्व है. सन्तों एवं भक्तों दोनों ने इस प्रकार की रचनाएँ लिखी हैं. भक्तों ने भगवान के साथ अपना पारिवारिक सम्बन्ध अधिक जोड़ा है. कभी यह सम्बन्ध स्वामी और सेवक का रखा तो कभी माँ और बेटे का रहा, कभी यह सम्बन्ध पति और पत्नी का रहा तो कभी पिता और पुत्र का
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