________________
श्रीशान्ता भानावत
श्रीतिलोक ऋषि की काव्यसाधना
हिन्दी साहित्य में 'सन्त' शब्द सामान्यतः निर्गुणोपासक कवियों के लिए और 'भक्त' शब्द सगुणोपासक कवियों के लिए रूढ़ हो गया है. सन्त कवियों में कबीर का स्थान सर्वोपरि है. इधर जब से जैन साहित्य के प्रति विद्वानों की दृष्टि गई है तब से सन्तसाहित्य की परिधि अधिक व्यापक हो गई है. निर्गुणमार्गी सन्त कवियों की तरह जैन सन्त कवियों ने भी नामस्मरण, सद्गुरुमाहात्म्य, कषायपरित्याग, भावशुद्धि, ज्ञानोपासना, संयमवृत्ति, बाह्याडम्बर-विरोध और अन्तरंग उपासना पर अधिक बल दिया है. सच तो यह है कि ये जैन कवि जीवन से भी उतने ही सन्त हैं जितने काव्य से. इनकी धर्मसाधना ने ही उन्हें काव्यसाधना की ओर उन्मुख किया है. श्रीतिलोकऋषि ऐसे ही सन्त कवियों की माला में उज्ज्वल मनके के रूप में देदीप्यमान है. जैन समाज में उनकी लोकप्रियता कबीर से होड़ लेती है. इनके कवित्त, सवैये और मुक्तक पद अध्यात्मप्रेमी लोगों द्वारा इसी प्रकार गाये जाते हैं जिस प्रकार रसिकों द्वारा बिहारी के दोहे. जीवनवृत्त तिलोकऋषि का जन्म वि० संवत् १६०४ में चैत्र कृष्णा तृतीया, बुधवार को रतलाम में हुआ. इनके पिता दुलीचन्दजी सुराणा नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. उन्हें भौतिक वैभव के सभी साधन उपलब्ध थे, फिर भी उनकी धर्म के प्रति गहरी निष्ठा और जिनवाणी के प्रति उत्कट श्रद्धा थी. आलोच्य कवि की माता नानू बाई भी धर्मप्राण महिला थी. माता पिता के इन धार्मिक संस्कारों ने 'बालक' तिलोक को 'ऋषि' तिलोक बनाने में बड़ा योग दिया. जन्म से चार मास पूर्व ही कवि के पिता इस लोक से कूच कर गये थे. जन्मजात पितृवियोगी बालक तिलोक के कवि-जीवन में इस अभाव ने अनेक भाव-रत्नों की सृष्टि की. जब कवि दस वर्ष का था तभी ज्ञान-क्रिया-सम्पन्न पंडित अयवन्ता ऋषिजी अपने शिष्य-परिवार के साथ रतलाम पधारे. कवि अपनी मां के साथ उनका प्रवचन सुनने गया. 'वैराग्य' भावना पर उनका प्रवचन इतना अधिक मर्मस्पर्शी
और हृदयग्राही था कि कवि की माता नानू बाई आत्मविभोर हो गई और संयमपथ पर बढ़ने का दृढ़ संकल्प कर बैठी. मां को संयममार्ग पर बढ़ते देख बेटी हीराबाई कैसे रुक सकती थी ? और बेटे 'तिलोक' का क्या कहना ? वह तो तीन लोक की कल्याणकामना का संस्कार लेकर इस भव में अवतरा था. क्या हुआ यदि उसका वाग्दान सैलाना निवासिनी श्रीमती चुन्नीबाई की लाडली बेटी गुलाबकुवर के साथ निश्चित हो गया ? लो, वह भावी जीवन-संगिनी भी इस लोक से चल बसी । संसार की असारता और काया की नश्वरता के दो चित्र सामने थे। बालक तिलोक साधनापथ पर बढ़ चला. भाई कुवरमल से न रहा गया, उसने भी संयम का रास्ता अपनाया. फलतः संवत् १९१४ में माघ कृष्णा प्रतिपदा, गुरुवार को अयवन्ता ऋषिजी के सान्निध्य में एक ही परिवार के चार व्यक्ति (मां, बेटी और दो बेटे) दीक्षित हुए.
Jain Education means
MONIACiry.org
(CRU