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१७० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
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रहा. सन्तों में यह व्यक्तिपरक सम्बन्ध कम और नाम का माहात्म्य अधिक रहा है, तिलोक ऋषि ने चौबीस तीर्थंकरों, पंच परमेष्ठियों, गणधरों और सन्त-सतियों की स्तुति विशेष रूप से की है. स्तुतियों में उनके बाह्य रूपरंग का वर्णन कम और आन्तरिक शक्ति तथा गरिमा का वर्णन अधिक रहा है. उदाहरण के लिये 'पंच परमेष्ठी वन्दना' को देखा जा सकता है. अरिहन्तों की वन्दना करते हुए कवि ने उनके कर्मक्षयकरण स्वभाव, चौंतीस अतिशय, पैतील वाणी, शारीरिक सौन्दर्य, अनन्तगुण, निर्दोष भाव आदि का स्मरण किया है.
नमो श्री अरिहन्त, कर्मों का किया अन्त, हुआ सो केवलवन्त करुणा भंडारी है, अतिशय चौंतीस धार, पैंतीस वाणी उच्चार, समझावें नरनार पर उपकारी है। शरीर सुन्दराकार, सूरज सो झलकार, गुण है अनन्त सार, दोष परिहारी है,
कहत तिलोक रिख मन वच काया करि, लुलि-लुलि बारम्बार वन्दना हमारी है । सिद्धों की वन्दना करते हुए उनके अचल. अटलरूप, आवागमन-चक्र-मुक्ति, सर्व कर्मक्षयी एवं कालजयी व्यक्तित्व, निर्विकार एवं निर्लेप स्वरूप आदि की स्तुति की है.
सकल करम टाल, वश कर लियो काल, मुगति में रह्या माल, आतमा को तारी है, देखत सकल भाव, हुआ है जगत राव, सदा ही खायक भाव, भये अविकारी है। अचल, अटलरूप आवे नहीं भवकूप, अनूप सरूप ऊप, ऐसे सिद्धधारी है,
कहत है 'तिलोक रिख' बताओ वास प्रभु सदा ही उगते सूर, वन्दना हमारी है। आचार्यों की वन्दना करते हुए उनके ३६ गुणों, आचारनिष्ठा, मधुर वचनामृत, नेतृत्वगरिमा, लोकहितभावना आदि का कीर्तन किया है.
गुण है छत्तीस पुर, धरत धरम उर, मारत करम क्रूर, सुमत विचारी है, शुद्ध सो आचारवन्त, सुंदर है रूप कन्त भण्या सब ही सिद्धान्त, वांचणी सुप्यारी है। अधिक मधुर बेण, कोई नहीं लोपे केण, सकल जीवां का सेण, कीरत अपारी है,
कहत है 'तिलोकरिख' हितकारी देत सीख, ऐसे आचारज ताकू वन्दना हमारी है। उपाध्यायों की वन्दना करते हुए उनके अंग उपांगादि शास्त्रों के पठन, नीर-क्षीर-विवेकी बुद्धि, भ्रमविध्वंसक व्यक्तित्व, तपतेजस्विता, अगाध पांडित्य, तर्कशक्ति आदि गुणों का स्मरण किया है.
पढ़त इग्यारे अंग, करमों सुं करे जंग, पाखंडी को मानभंग करण हुसियारी है, चवदे पूरब धार, जानत आगम सार, भविन के सुखकार, भ्रमता निवारी है । पढ़ावे भविक जन, स्थिर कर देत मन, तप कर तावे तन ममता निवारी है,
कहत है 'तिलोक रिख' ज्ञान भानु परतिख, ऐसे उपाध्याय ताकुं वन्दना हमारी है। साधुओं की वन्दना करते हुए उनके आत्म-संयम, समिति गुप्ति पालन, छः काय की रक्षा, महाव्रत पालन, कषाय-त्याग, ममता-निवारण, स्वाध्याय, क्रिया, प्रभुभक्ति आदि विविध आचारों का बखान किया है
आदरी संयम भार, करणि करे अपार, समिति गुपतिधार विकथा निवारी है, जयणा करे छः काय, सावद्य न बोले वाय, बुझाय कषाय लाय, किरिया भंडारी है। ज्ञान भणै आळू याम, लेवें भगवंत नाम, धरम को करे काम, ममता कूमारी है,
कहत है 'तिलोक रिख' करमों को टाले बिख, ऐसे मुनिराज ताकू वंदना हमारी है । (ख) आख्यानमूलक स्तवनात्मक रचनाओं में गीतितत्त्व अधिक सुरक्षित रह सका है. आख्यानमूलक कृतियाँ प्रबन्ध काव्य की कोटि में आती हैं
___Jain M
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