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प्रो. श्रीराधेश्याम त्रिपाठी
एम० ए०
आचार्य रायचंद्रजी म० की साहित्यसर्जना
भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का जो लोकोपकारक और धर्मनिष्ठ स्वरूप है, वह अनायास ही इस साहित्य के रूपवैभव की गरिमा का जीवन्त आभास देता है. जो अपने साथ एक ऐसी परम्परा का सूत्र थामे हुए है जिसका एक सिरा विक्रम संवत् ११६७ से पूर्व का है. जैनाचार्य जिनवल्लभ सूरि के 'बृहद् नवकार' 'के रूप में विक्रम संवत् १२२५ तथा १२४१ के क्रमश: "भरतेश्वर बाहुबलि घोर" तथा 'भरतेश्वर बाहुबलि रास' से बन्धकर विक्रम की १५ वीं शताब्दी में जाकर गठित होता हुआ सूत्र वर्तमान तक सुगठित है. जैन-साहित्य के रचनाकार अधिकांश: जैन मुनि हुए हैं जिन्होंने मानव को जीवन का प्रकाश दिया, वह प्रकाश जो सांसारिक, माया, मोह, लोभ, क्रोध, मद और जड़ता आदि मानसिक विकारों को दूर करने में सामर्थ्यवान् हो सका है. जीवन यदि धर्म की पवित्र रेखाओं से बन्धकर आचरण नहीं करता तो वह व्यर्थ है. इस प्रकार जीवन को धर्ममय बनाने और लोक का कल्याण करने की भावना इस साहित्य में विद्यमान है. १२ वीं शताब्दी से लेकर वर्तमान युग तक हमारे सामने जैन रचनाओं के अनेक स्वणिम पृष्ठ खुले पड़े हैं, जिनमें मानव-जीवन का सत्य छलक रहा है और जिसके निर्माता जैन मुनि हैं. इसी परम्परा में आचार्य श्रीरायचन्द्रजी महाराज का योगदान जैन साहित्य की आधुनिक कड़ी के रूप में है. आचार्य रायचन्द्र जी का जन्म विक्रम संवत् १७९६ आश्विन शुक्ला एकादशी को हुआ था. आपकी किशोर वय ने जीवन की सार्थकता को खोजने की दिशा ढूंढ ली, और विक्रम संवत् १८१४ की आषाढ शुक्ला एकादशी को आपने दीक्षा ग्रहण कर ली. आपका सन्त स्वरूप सौभ्यता का प्रतीक था. लोकमानस में जैन धर्म के उच्च आदर्श की प्रतिष्ठा करने के लिए लोकभाषा को अपने भावों का माध्यम बनाया. लोकभाषा के रथ पर बैठकर आपके भाव काव्य-सृजन की वल्गा थामे बढ़ते रहे. आपने जैन चरित्र व कथा-काव्यों तथा स्तवनों की परम्परा में ऋषभ देव, महावीर, नेमिनाथ, आदि तीर्थंकरों, जम्बू स्वामी, गौतम स्वामी, शालिभद्र आदि उच्चवंशी जैन साधुओं और देवकी, चन्दनबाला, मृगलेखा आदि सतियों के महत्त्व का एवं उनके जीवन की विविध घटनाओं का वर्णन किया है. उपदेशात्मक शैली पर लिखी चेतावनीयुक्त शिक्षाएँ, रासा, वाणी, सज्झाय आदि विभिन्न पक्षों पर आपने बड़ा ही भावपूर्ण वर्णन किया है. आपकी रचनाओं में काव्य का माधुर्य उदात्त चरित्रों की सृष्टि करता हुआ लौकिक भावभूमि पर रमण करता है. आप प्रतिभासम्पन्न तो थे ही, साथ ही आपके सरस व भावुक हृदय में सन्त के साथ जो कवि विद्यमान है, वह लोकभावों का सदाचारपूर्ण चित्र खींचने में सफल और सक्षम हुआ है. सन्तों और मुनियों ने स्तवन द्वारा महान् पुरुषों और अवतारों का गुणानुवाद किया है. "राय-रचना" में मुख्य रूप से जिनका स्तवन है उनमें भगवान् ऋषभदेवजी, चन्द्रप्रभ, नेमिनाथ, महावीर और गौतम सम्बन्धी जिनस्तवन उल्लेखनीय हैं । इन स्तवनों में आचार्य श्री ने यह प्रतिपादित किया है कि महान् आत्माओं की स्तुति करने से सांसारिक कष्टों से छुटकारा होता है. रोग, शोक मिट जाते हैं तथा नामस्मरण से अनेक कार्य सिद्ध होते हैं. ऋषभस्तवन का एक उदाहरण दृष्टव्य है
"मनचिन्तविया, मनोरथ फले जै सुख चावो ते सुख मिले
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