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नरेन्द्र भानावत : प्रा. जयमल्लजी : कृतित्व-व्यक्तित्व : १५५
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(१) जिण घर नो तूं टुकड़ो खावे सो घर नाखे ढाई रे (११७-१) (२) वमिया आहार की हो, वांछा कुण करे ?
करे छे कूतरो ने काग (१६३-६) (३) दिक्षा हे पुत्र दोहिली, तो ने कहुं छु जताय.
मेण-दात लोहना चणा, कुण सकेला चाय (२१३-२) (४) हुवे दुषमण कपड़ा डील रा, जब करम उदय हुवे आय रे (२६०-१) (५) पांडव जीत माथौ मति धूण.
___पिण हूं तोने करसू आटे लूण (४१६-२) छन्द-विधान :-जैन-संत प्रतिदिन व्याख्यान देते हैं. इन व्याख्यानों में मुख्य-भाग कथा-काव्यों का रहता है. आलोच्य कवि आचार्य जयमल्लजी ने स्वयं कई कथा-काव्य रचे जिन्हें वे व्याख्यानों में गा-गाकर सुनाया करते थे. गाने और सुनाने के उद्देश्य से लिखे जाने के कारण इनमें संगीत-तत्त्व की प्रधानता हो गई है. यही कारण है कि यहाँ जो छन्द अपनाये गये हैं वे ढाल आदि हैं, जिनसे विभिन्न राग-रागिनियों का बोध होता है. अन्य छंदों में दोहा-सोरठा-सवैया आदि हैं. प्रबन्धात्मक काव्यों में जहाँ दो भावों या घटनाओं के बीच कथा-सूत्र संयोजित करना होता है वहां प्रायः दोहा या सोरठा छन्द का प्रयोग किया गया है और जहाँ किसी भावना या घटना का चित्रण किया गया है वहां किसी राग विशेष में बंधी हुई ढाल में. निष्कर्ष यह है कि संत कवि जयमलजी का व्यक्तित्व उस युग के कवियों में अलग जान पड़ता है. सूर ने जहाँ 'सौन्दर्य' को प्रधानता दी, तुलसी ने 'शक्ति' की प्रतिष्ठा की, वहाँ हमारे इस कवि ने 'शील' का निरूपण कर समाज को वासना की वेग-धारा में बहने से बचाया. पद्माकर जैसे कवि जिस युग में 'नैन नचाय, कह्यो मुसकाय, लला फिर आइयो खेलन होरी' का निमन्त्रण दे रहे थे, उसी युग में पैदा होकर इस साधक कवि ने 'च्यारूँ ई जाप जपो भला, मोटी दिवाली नी रात' का बोध देकर भक्ति और अध्यात्म की अवरुद्ध काव्य-सरिता को फिर से बहने का प्रवाह दे दिया. यही उसकी उपलब्धि और महानता है. प्रसंगतः यह उल्लेख कर देना भी अनिवार्य जान पड़ता है कि रीतियुग में एक ओर कविगण विलास-वैभव एवं साम्पत्तिक जीवन को महत्त्व देकर पार्थिव सौन्दर्य का उद्घाटन कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर जैन कवि आध्यात्मिक संस्कृति को उद्दीपित करने वाली लोककल्याणकामिनी वाग्धारा द्वारा अन्तःस्थ सौन्दर्य को निखारने में तल्लीन थे. वे किसी के आश्रित कवि नहीं थे जिससे कि उन्हें अपने स्वामियों की प्रसन्नता के लिए विकारपोषणार्थ शृंगारधारा को साकार कर जनमानस को विश्रृंखलित करना पड़ता. उनका आराध्य और श्रेय नैतिक सिद्धान्तों की अभिव्यक्ति के द्वारा राष्ट्रीय चरित्र को उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करना था. यही जैन कवियों की मौलिक विशेषता रही है. इस सत्योपलब्धि की एक कड़ी आचार्य जयमलजी हैं, जिन्होंने जीवनरस और सिद्धि को न केवल तत्कालीन मनुष्यों के लिए ही प्रस्तुत किया अपितु काव्य द्वारा ऐसी सृष्टि की जिससे शताब्दियों तक मानवता अनुप्राणित होती रहे.
१. कुछ रागों के तर्ज इस प्रकार हैं. जो मुक्तक रचनाओं में प्रयुक्त हुई हैं - (१) ते मुझ मिच्छा मि दुक्कडं (२) आदर जोध क्षमा गुण आदर (३) वोर वखाणी राणी चेलणा (४) हिवे आश्चर्य थयो ए (५) कागदियो लिख भेजें हो संगू को नहीं (६) ते गुरु मेरे उर बसो (७) चर्णाली चामुंडा रिण चढ़े (6) कोयलो पर्वत-धुंधलो रे लाल (8) ढोला रामत ने परी छोड़ने (१०) सामी म्हारा राजा ने धरम सुणावजो (११) चितोड़ी राजा रे (१२) इम धण ने परचावे (१३) अधर्मी अविनीत (१४) तुझ बिन घड़ी (१५) गज घोड़ा देख भुलायो रे (१६) प्राणी कब ठाकुर फुस्मायो रे (१७) दुनियाँ में बहुत दगाई रे (१८) कलजुग रो लोक ठगारो रे (१९) प्राणी किये कर साहिब रीजे रे (२०) प्राणी! ए जग सपनो लायो रे (२१) चेतन चेतो रे मिनख जमारो पायो रे (२२) भवि जीवां करणी हो कीजो चित निर्मली (२३) जीवडला दुलहो मानव भव काई रे त् हारे (२४) वढा तिके पण कहिये बाल (२५) पुण्य रा फल जोयजो कायर मत होयत्यो रे (२६) कह भाई रूडो ते स्यूं कियो (२७) जीवां तूं तो भोलो रे प्राणी, इम रुलियो संसार.
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