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१५४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : प्रथम अध्याय
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(३) काया रूपी हवेलियाँ, तपस्या करने रेल.
सूस' वरत कर मांडणों, विनय भाव वर वेल ।२८। क्षमा रूप खाजा करो, वैराग्य घृतज पूर. उपशम मोवण घालने, मदवो मोतीचूर ।२६। दिवाली दिन जाणने, धन पूजे घर मांय. इम तू धर्म ने पूज ले, ज्यों अमरापुर में जाय ॥३१॥ राखे रूप चवदश दिने, गहणा कपड़ां री चूप. ज्यों चुप राख धर्म सं, दीपे अधिको रूप ॥३२॥ पर्व दिवाली ने दिने, पूजे बही, लेखण ने दोत. ज्य तू धर्म ने पूजले, दीपे अधिको जोत ॥३४॥ पर्व दिवाली जाण ने, उजवाले हवेली ने हाट.
इम तूं वत उजवाल ले, बन्धे पुनारा ठाट ।३श पृ० ५३ उपर्युक्त तीनों रूपक सुन्दर बन पड़े हैं । पहले में संत को शूरवीर का रूप दिया गया है । वह ज्ञान के घोड़े पर सवार है
और बड़ी त्वरा के साथ कर्म-सैन्यदल का नाश करता है. दूसरे में क्षमा-गढ़ में प्रविष्ट होने के लिए बारह भावना रूपी नाल की चढ़ाई और आठ कर्म रूपी किवाड़ों को तोड़ने का वर्णन है. तीसरा रूपक आध्यात्मिक दिवाली का है. दीपावली पर्व मनाने का यह तरीका पूर्णतः आध्यात्मिक है. यहाँ काया की हवेली को तपस्या से उज्ज्वल करना है, क्षमा के खाजे, वैराग्य के घेवर तथा उपशम के मोवण से मोतीचूर बनाने हैं. धर्म की बही और कलम दवात को पूजना है. यही नहीं, काय के मन्दिर में जिनदेव को प्रतिष्ठित कर उनकी पूजा करनी है. उन्हें धैर्य की धूप, 'तपस्या' की अगर और 'श्रद्धा' के सुमन चढ़ाने हैं. 'दया' के दीपक में संवेग की बाती जला कर, 'ज्ञान' का तेल डालकर 'समकित' का ऐसा उज्ज्वल प्रकाश करना है कि आठों कर्मों का अंधकार भस्म हो जाय
काया रूप करो 'देहरो, ज्ञान रूपी जिनदेव । जस महिमा शंख झालरी, करो सेवा नितमेव ।१४। धीरज मन करो धूपणों, तप अगरज खेव । श्रद्धा पुष्प चढ़ायने, इम पूजो जिन देव ।१२। दया रूपी दिवलो करो, संवेग रूपणी वाट । समगत ज्योत उजवाल ले, मिथ्या अंधारो जाय फाट ।१६। संवर रूपी करो ढांकणो, ज्ञान रूपियो तेल ।
श्राठों ही कर्म परजाल ने, दो रे अन्धारो ठेल । -जयवाणी : पृ० ५२ साधर्म्यमूलक अलंकारों में दृष्टान्त और उदाहरण के प्रयोग ही कहीं-कहीं दिखलाई पड़ते हैं
(१) दग्ध बीज जिम धरती व्हायां, नहिं भेले अंकूरजी.
तिम हीज सिद्धजी, जन्म मरण री कर दी उत्पत्ति दूरजी (२८-८) (२) रूधिर नो कोई खरड्यो कपड़ो, रूधिर सू केम धोईजे रे.
हिंसा कर हुवे जीव मेलो, वले हिंसा धर्म करीजे रे (११६-६) भाषा को प्रभावोत्पादक और भावों को प्रेषणीय बनाने के लिए लोकोक्तियों और मुहावरों का भी यथास्थान प्रयोग किया गया है. यथा
१. सौगन,व्रत, प्रत्याख्यान आदि.
PROINNARELA
RAKHNAZESHMA
Jainamaicati
vate
sona
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