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विभिन्न लेखक : संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ : १६
युगपुरुष : श्रद्धेय श्रीहजारीमलजी महाराज युगपुरुष अपने युग की चेतना का प्रतिनिधि होता है. उसके चिन्तन में युग का चिन्तन चलता है, उसकी वाणी में युग की वाणी मुखरित होती है और उसके कर्म में युग का कर्म प्रारम्भ होता है. युग-पुरुष का जीवन जन-जन के जीवन में प्रेरणा, स्फूर्ति और चेतना भर देता है. श्रद्धेय श्रीहजारीमलजी महाराज अपने युग की एक विमल विभूति थे. वे क्या थे ? विचार में गम्भीर, आचार में प्रखर और वाणी में मधुर ! उनका पावन और पवित्र जीवन, विचार और आचार का सुन्दर संगमस्थल था. स्वामीजी म. अपने सिद्धान्त में अडिग और अडोल थे. व्यवहार में मृदु और मधुर होने पर भी वे किसी के प्रभाव में नहीं आते थे. प्रकृति से भावुक एवं भावना-शील होते हुए भी व्यवहार में उनकी चतुरता परिलक्षित होती थी. दृष्टिकोण उनका इतना विशाल था कि उसमें सबको समाहित होने का सहज ही अवकाश मिल जाता था. उस पावन व्यक्तित्व के प्रति मैं अपनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ.
प्र० श्रीपृथ्वीचन्द्रजी म.
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श्रद्धापुष्प स्वामीजी महाराज का जीवन सरलता, सरसता और आत्मसाधना से परिपूर्ण था. उनका जीवन आज भी मेरे दृष्टिपटल पर पूर्णतः अंकित है.. जहाँ तक में स्वामीजी महाराज के जीवन-पहलुओं को देखभाल पाया हूँ-उसके आधार पर कह सकता हूँ कि उनके मन में वटुव्रज-सी सरलता, वचन में मिश्री-सी मधुरता और तन में मधुकर-सी स्फूर्ति साकार थी और थी साधना के पथ पर आगे बढ़ने में वज्र-सी कठोरता. सौम्याकृति से सदा सर्वजनहितकर सोमरस की बूंदें टपका करती थीं. उनका नाम 'हजारी' वस्तुत: सार्थक था. वह नाम आज भी हजारों अधरों से उच्चरित होकर कर्ण-कुहरों में गूंज रहा है. उस अलौकिक ऋजु पुरुष की छाप मेरे हृदय पर अनंतकाल के लिए अंकित रहेगी !
प्र. मुनि श्रीपन्नालालजी महाराज
अर्पित श्रद्धा-पुष्प अवनी पर चन्दन शीतल है. चन्दन से चन्द्र की चांदनी शीतल है ! चन्द्र की चांदनी से सन्त शीतल है ! पशुओं से मनुष्य श्रेष्ठ है ! साधारण मनुष्य से विद्वान् श्रेष्ठ है ! विद्वान् की विद्वत्ता से सन्त का मंगल-आचरण श्रेष्ठ है ! हर तरह से सन्त सर्वश्रेष्ठ है ! उत्तम है ! सन्त का सोचना, बोलना और करना यह सब देव-कोटि का है ! क्योंकि वह समाज से लेता कम और देता अधिक है. देने वाला देव है. जैन दृष्टि से सन्त के शुभाचरण की तुलना में इन्द्रादि देवों की समृद्धि और पद फीका है. क्योंकि सन्त का कण-कण ज्ञान दर्शन और चारित्र में सराबोर होता है. रत्नत्रय की साधना के लिये साधुजीवन उत्तम माना गया है. क्योंकि वह व्यक्ति में केन्द्रित न होकर समष्टि में व्याप्त होता है. उसी के हित में रत रहता है. मंगल आचरण केवल सन्तों के जिम्मे ही हो और सन्तत्ववृत्ति स्वीकार किये बिना वह सम्भव नहीं है—ऐसा नहीं है. जैनधर्म में उसके लिए दो पथ निर्धारित हैं. सन्तवृत्ति और गृही (श्रावक) वृत्ति. किन्तु हमें स्वीकार करना होगा- यह सब सद्विचारों और सुसंस्कारों के बिना सम्भव नहीं है.
JainutOHINDI
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