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१००: मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : प्रथम अध्याय
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मेरा सौभाग्य है कि सन्त-समागम की अभिरुचि मुझे पूर्वजों से प्राप्त हुई है. उसके फल-स्वरूप ही मैं सन्तों की सेवा में समय-समय पर पहुँचता रहा हूँ और सन्तवचनों का लाभ उठाता रहा हूँ. अपने जीवन में कुछ सफलता के दर्शन किये हैं तो वह साधुकृपा का ही सुफल है. मेरे जीवन पर दो सन्तों का विशेष और चामत्कारिक प्रभाव है. एक पूज्य श्री शोभाचन्द्रजी म० तथा दूसरे जन-जन पूज्य स्वामी श्रीहजारीमलजी म०. इनके अतिरिक्त भी मैं अनेक सन्तों के सम्पर्क में आया हूँ. स्वामीजी म. में यह विशेषता थी कि वे स्वभाव से अत्यन्त सरल होने के साथ-साथ अत्यन्त उपशांतकषाय थे. स्वामीजी म० के प्रत्येक व्यवहार में शीतलता शान्ति एवं सरलता ही अभिव्यक्त होती थी. उन्हीं की कृपा का फल है कि मुनि मिश्रीमलजी म० 'मधुकर' जैसे एक विद्वान् और अभिमान के गरल से रहित महान् सन्त की उपलब्धि समाज को हुई है. यही कारण है कि वे जनता के विशेष श्रद्धा और आदर के पात्र बने हैं.. वर्तमान युग की सर्वाधिक आवश्यकता साम्प्रदायिकता के उन्मूलन की है. परस्पर प्रेम का प्रचार तथा स्याद्वाद के महान् सिद्धान्त द्वारा भेदभाव को मिटाकर समन्वय की चेष्टा की जाय. ऐसा न होने से धर्म को गहरा धक्का लगने की सम्भावना हो रही है और समय तथा शक्ति नष्ट हो रही है. जहाँ तक मेरी स्मृति काम कर रही है, श्रीहजारीमल जी म० भी मेरे इन विचारों को पसन्द करते थे और उनका व्यवहार भी इसीके अनुसार था. इन्हीं विचारों का पूर्ण प्रतिबिम्ब, मैं मुनि श्रीमिश्रीमलजी म० 'मधुकर' में देख रहा हूँ. इस विचारधारा का अधिकाधिक प्रचार हो तो समाज बहुत लाभान्वित हो सकता है. अस्तु, उस पूज्य पुरुष के प्रति मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ यह कामना करता हूँ कि स्वामीजी म० के जीवन व उपदेशों और विचारों के अनुरूप ही अपना जीवन बनाऊँ. स्वामीजी म० की पवित्र स्मृति में मेरी श्रद्धा के ये पुष्प सादर अर्पित हैं.
मेहता रणजीतमल, भूतपूर्व जज हाईकोर्ट, जोधपुर.
श्रद्धासुमन-समर्पण श्रद्धेय दिवंगत श्रीहजारीमल जी महाराज का 'स्मृतिग्रंथ' प्रकाशित होने जा रहा है. इस अवसर पर मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि के रूप में दो शब्द निवेदन करना अपना महान् सौभाग्य समझता हूँ. चाहे वे किसी भी धर्म के हों, सन्त संसार में श्रेष्ठ हैं. जैन या अजैन सभी सन्त पुरुषों का जीवनस्तर, उनका आत्मिक ज्ञानध्यान, तथा दैनिक कार्यक्रम-एक ऐसे निर्मल अलौकिक स्तर पर चलता रहता है कि मेरी मान्यता है कि उनके जीवन को ठीक-ठीक आंकना मुझ जैसे साधारण व्यक्तियों के लिये वैसा ही है जैसे आकाश के सितारों को भूतल पर अवतरित करने का प्रयास. फिर भी साधारण मानव का भी सन्त के प्रति एक दृष्टिकोण होता है. और आज के युग में सभी को अपनी बात कहने की स्वतन्त्रता भी तो है. यही विचारधारा मेरी इन पंक्तियों की आधारशिला है. महाराज श्री मुझे कैसे दिखाई पड़े ? त्याग और तप, ज्ञान और ध्यान का ओजस्वीपन उनकी प्रसन्न मुखमुद्रा पर सदैव शोभायमान रहता था. वे बहुत ही मितभाषी थे. मेरा अनुमान है कि वे आवश्यकता होने पर ही कुछ कहने को तत्पर होते थे. उनका स्वभाव बहुत ही कोमल और सरल था. छल-कपट तो उनसे कोसों दूर था, और जब भी मुझे उनके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ, मुझे ऐसा लगता था कि वे अगाध शान्ति और असीम आत्मानन्द के महासागर में अनवरत डुबकियां लेते रहते थे. उनका शान्त-हृदय सांसारिक प्रपंचों से सदैव अलग-थलग था. ऐसे सन्त जैन श्रमणपरम्परा के तो उत्कृष्ट उदाहरण होते ही हैं, लेकिन मेरी अल्पबुद्धि में वे किसी देश, जाति, धर्म व संप्रदाय विशेष की ही सम्पत्ति
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