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१८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : प्रथम अध्याय हृदय की श्रद्धा हाथों में
श्रद्धा मेरे हृदय में है ! श्रद्धा को हाथों से निकाल कर कैसे बता सकती हूँ-गुरूवर! आपकी दृष्टि में, आपके प्रति श्रद्धा रखने वाला और अश्रद्धावान दोनों ही समान थे. आपको जीवन में यह नापने-जोखने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई थी कि मुझमें किसकी कितनी श्रद्धा है ! तथापि मैं, आपके प्रति कितनी श्रद्धा रखती पाई हूँ-यह हाथ पर रखकर तो नहीं पर हाथ से लिखकर जतानी पड़ रही है ! पड़ ही क्यों रही है-यह मेरा परम पुनीत कर्त्तव्य है ! आपको नहीं समाजस्थों को बताने-जताने की आवश्यकता है. में उन्हीं को बता-जता रही हूँ फिर भी हृदय में उफनती श्रद्धा हाथों से उठाकर बताने में असमर्थ हूँ !
मेरी श्रद्धा जितनी गहरी या उथली है-मेरी श्रद्धा की उतनी ही गहराई और जितना उथलापन है, उसका उतना ही मूल्यांकन कर, वन्दना के सामूहिक उठते स्वरों में, एक स्वर मेरा भी-अपनी जानकर-मिला लेना ! क्योंकि यह मेरा लोक व्यवहार गत श्रद्धार्पण है !
श्रद्धा हृदय की वस्तु है ! उसका स्थान हृदय ही है ! यह हाथों में निथार कर नहीं निकाली जाती. श्रद्धा बाँटी भी नहीं जाती! श्रद्धा कृपण की तरह हृदय में संजोकर रखने से हृदयान्धकार मिटता है! मैं, हृदय का अन्धकार मिटाना चाहती हूँ ! श्रद्धाप्रदर्शन से हृदयप्रकाश, प्रस्थान कर जाता है! अन्धकार हृदय के अन्दर प्रवेश पाता
है ! मैं श्रद्धा देकर भी हृदय श्रद्धा से शून्य करना नहीं चाहती ! मेरी श्रद्धा के श्रद्धेय सब के श्रद्धेय बन गये-यह मेरा अचल-अखण्ड अमर
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CE सौभाग्य है !
-विदुषी महासती श्रीउमरावकुंरजी
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NMAJHANTON awaiiiilim....
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