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श्री ओंकारलाल जी सेठिया का अध्यक्षीय भाषण | २३
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अभिनन्दन जहाँ गुणों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है वहाँ जन-जीवन को एक नई प्रेरणा भी देता है। यह सत्य है कि जहाँ पाप पूजा जाता है वहाँ पाप बढ़ेगा और जहाँ सत्य पूजा जाता है वहाँ सत्य । हमारे विशाल भारतवर्ष में सत्य पूजनीय और सार स्वरूप माना जाता है।
भगवान महावीर ने कहा "सच्चं लागेम्मि सारभूयं" "सत्यमेव जयते" यह हमारी संस्कृति का मूल सूत्र है किन्तु पिछले एक हजार वर्षों से भारतवर्ष में जो परिस्थितियाँ बनीं, गुलामी और पराजित मनोवृत्ति से जिस तरह हम जकड़े गये उससे हमने अपना बहुत कुछ सार तत्त्व खोया ।
पराधीनता और पतन के उस चरमोत्कर्ष में एक दिव्य पुरुष ने हमें नई प्रेरणा देकर जागृत किया । उस महापुरुष का नाम महात्मा गाँधी है।
सत्य और अहिंसा के बल पर देश आजाद कराने वाले उस साबरमती के सन्त को हमारा देश कभी भी नहीं भूल सकता जिसने कठिनाई की घड़ियों में हमारा नेतृत्व किया ।
बाद में पण्डित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल एवं लालबहादुर शास्त्री ने देश को पिछड़ेपन से आगे बढ़ाने के लिए बहुत प्रयत्न किया।
आज हमारी प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी देश को पिछड़ेपन, अन्धविश्वासों और गरीबी से बाहर निकालने के लिए जी-जान से प्रयत्नशील है।
जैनधर्म तोड़-फोड़, हिंसा और अराजकता में कतई विश्वास नहीं करता हम शान्ति के इच्छुक हैं। जैनधर्म के उदात्त संस्कारों में साम्प्रदायिकता को कोई स्थान नहीं।
भगवान् महावीर से पूर्व अर्थात् पार्श्वनाथ और उनसे पूर्व के मुनि कई रंग के वस्त्र धारण करते किन्तु महावीर के श्रमण श्वेत वस्त्र पहनते थे ।
सिद्धान्त एक होते हुए भी ऊपर से बड़ा भेद था किन्तु श्रावस्ती नगरी के तिन्दुक उद्यान में केशी श्रमण और गौतम स्वामी ने बैठ कर परस्पर समाधान कर लिया और साम्प्रदायिकता को नहीं पनपने दिया । आज देश में पुनः उस वातावरण को जाग्रत करना है; साम्प्रदायिकता को कहीं प्रश्रय नहीं देना चाहिए।
जैन समाज जो कई सम्प्रदायों में विभक्त है, उसका भी उन्नति का मार्ग तभी प्रशस्त होगा जब वह साम्प्रदायिकता से बाहर आये।
जैन समाज के सन्दर्भ में मैं एक बात अवश्य कहना चाहूँगा कि हम साम्प्रदायिक वातावरण में इतने अधिक घुलमिल गये हैं कि प्रत्येक दूसरे सम्प्रदाय वाले को हम मिथ्या दृष्टि कह देते हैं किन्तु क्या यह सत्य है ? यह कितनी हास्यास्पद बात है कि दूसरे को मिथ्यादृष्टि कहने वाले अक्सर यह जानते ही नहीं कि सम्यक् दृष्टि किसे कहते हैं । और मिथ्या दृष्टि किसे । शास्त्रों में जो कुछ भी व्याख्या है उसको जहाँ तक भी हमारे मनीषियों ने समझा है और जो उन्होंने कहा, यदि मैं आधुनिक भाषा में उसे व्यक्त करूं तो वह यह है कि नफरत ही मिथ्यादृष्टि है। किसी के प्रति घृणा लेकर चलने से अधिक और क्या पाप होगा। भगवान महावीर ने संसार में अमन और शान्ति कायम रखने हेतु कुछ अमूल्य सन्देश दिये । उनमें सत्य, अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह प्रधान हैं।
प्रभु स्वयं निस्परिग्रही थे और उन्होंने लाखों अपरिग्रही मानवों का निर्माण किया । आप और हम आज उनके अनुयायी कहलाते हैं । किन्तु हमने महावीर की शिक्षाओं में से अहिंसा को तो कुछ लिया किन्तु अपरिग्रह को हम बिल्कुल नहीं ले पाये।
एक तरफ लाखों भूखे सोते हैं। दूसरी तरफ करोड़ों की सम्पत्ति एक हाथ में है। यह न्याय नहीं है। हमें अपरिग्रह को अपना कर देश सेवा में आगे बढ़ना चाहिए।
भगवान् महावीर का एक सर्वश्रेष्ठ सन्देश अनेकान्त हैं । अनेकान्त का अर्थ मेरी समझ में गुण ग्राही एकता हैं।
वस्तु को अनेक दृष्टि से देखा जा सकता है और उसमें अनेक विशेषताएं हैं, इसे स्वीकार करना यह अनेकान्त का प्रयोग है । हम इस शिक्षा द्वारा परस्पर किसी समान योग्यता से संबद्ध होकर संगठित हो सकते हैं।
हमारा समाज छिन्न-भिन्न है, वह कई टुकड़ों में है अतः हम थोड़ी संख्या में हो गए और निरन्तर हमारा घटाव चल रहा है।
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