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५६० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ग्रही नगरी मे १४ । सुगडांग सुतर मे दुजे अधीने। दुजे उदेसे तेरमी गाथा। जण कलपीने च्यार बोल वरज्या गाथा।
___णो पीहे नावयंगुणा दारु सुन्न घरस्स संजए। पुरठ न उदाहरे। वयंण समुर छणो सथरे तणं १३ ।
अरथ ॥ किण ही सयनादि कारणइ । सुने घर रही उ साधू ते घर नो द्वार टांके नही। उघाडे नही कीणहीक धर्म पुछिउ । तथा मारग पुछ्यौ थको । सावध वचन न बोले। जिन कलपी तथा अभीग्रह धारी। निरवद्य वचन पण नही बोले। उपदेश पणन्ही देवे। तरण कचरो काढे नही। चारो बछाव नही। ए आचार जणकलपी अभीग्रहे धारीनो छ। थीवरकलपी च्यार बोल करे तो दोष नही १५ । उतराधीन रा पेतीसमा अधीन मे। मनोहर घर चतराम सहेत होवे फूल री माला होवे धूप होवे । कमाड होवे। द्वोलो होवें । चंदरवो होवे जणीने देष वषे विकार जागे। जणो जायगा शाधू आरज्यां ने दोया ने रेणो वरज्यौ । कमाड जडवा षोलवा नो दोष नही च्याल्यौ १६ । वेद कलप ने पेले उदेस्ये। आरज्या ने उघाडे बारणे न कलपे। पण आडो जडणो नही । इसोपाट तो चाल्यौ नही १७। आचारंगसुत्तर में दुजे सत पंधे । पेले अधिन पाचमे उदेस्ये घर रे बारणे कांटा करीने ढाक्यौ हुवे तो। साधू आग्या मागी उघाडवौ चाल्यौ १६ । आचारंग दुजे सातमे अधीने । संभोगी साध आया जाणीने । आहार पाणी देणो कह्यौ। असंभोगी साध आया जाणीने । पाट पाटला देणा कह्या । दोइ साध चोषा आया रो संभोग जुदो-जुदो कह्यौ १६ । सोले सपनां मे तीजे सपने । चंदरमा चालणी शमान देष्यो। जण रे प्रताप पाचमा आरामे। साधां रा टोला जुदा जुदा होसी ॥२०॥ इति तेरापथ्या री चरचा संपुर्णः लिषंतु रिषबदास: देव गुरु प्रसादतु: गाम सणवड मध्ये।
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