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५५८ | पज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन प्रन्थ
चतुर नर ले सतगुर सरणा। लष चोरासी मे तु भम आयो कीया जनम मरणा ॥१॥
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सबद करी सतगुर समजावे सीष हीये धरणा। काल अनंत लयो मानव भव निरफला क्युं करणा० । च०।२।।
मात पिता नारी सूत काजे पाप पींड भरणा । अंत समे तेरे कोन संघाति पर भव स्युं डरणा० । च०॥३॥ कंठी दोरा कडा पेरीया वागा ने चरणा। स्वयं पर काजे करम बाधने दुरगत मे फरणा० । च०॥४॥ धन जोवन रिध मे गरभाणो गोरो दष वरणा। धर्माधर्म न जाणी मुर्ष भव जल मे पडणा० । च०॥५॥ ज्यो षिण जाए स्यौ पिछी न आवे रात दिवस षरणा। कालचक्र को नही भरोस्यो समज हीये करणा० । च०॥६।।
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इम जाणी समजो भव प्राणी सुगर वयण सुणणा। तप जप समज सुध अराधो भव सायर तर्णा० । च०॥७॥
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श्री गुरदेव तणे सु पसाए कीया एह वरणा। रिषब रिषी कहै धर्म कीया थी भव-भव दुष हरणा० । च०॥८॥
साल गुणीस बारे फागुण विध एक गुर्णा । षाचरोद सहेर मे हुवो समागम साध संत मिलणा० । च०।६।।
॥ इति संपुर्ण ॥
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