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________________ गुरुदेव श्री के सुवचन | २६ 000000000000 ०००००००००००० शल्य .....2 मना" । अतः दौलत के ढेर में अंधे होकर फूलो मत । हर अपनी महनत से किया हुआ कार्य हीसार्थक होता है। स्थिति में अपने आप को ढालने की कोशिश करो। कई शिष्य या सेवक भी सामने हों तो भी जीवन को परामन के मते न चालिये श्रित नहीं डालना चाहिये। अच्छे-अच्छे ज्ञानियों का भी मन कभी-कभी अव्रत, मूर्खता प्रमाद कषाय और अशुभ योग में चला जाता है। किन्तु कम पढ़ पाना मूर्खता नहीं है, समझना नहीं या उल्टा व्यवहार में वे अशुभ आचरण नहीं करते । इस तरह अशुभ समझना ही मूर्खता है। में गया मन भी फिर शुभ में स्थिर हो जाता है । साधारण व्यक्तियों के लिए भी यह आदरणीय बात है। कभी मन में मोक्ष का मार्ग बुराई आ जाये तो अपने आचरण को बुरा मत होने दो। देतो भावे भावना, लेतो धरे सन्तोष। मन वापस मार्ग पर आ जायेगा। एक कवि ने कहा हैमन लोभी मन लालची, मन कपटी मन चोर । वीर कहे रे गोयसा, दोनों जासी मोक्ष । मन के मते न चालिये, मन पलक पलक में और ॥ दानी की भावना, उत्कृष्ट होनी चाहिये किन्तु मुनिराज बोली बोल विचार कर जो ले रहे हैं उन्हें दान के अवसर और अपनी जरूरत का ध्यान रखना चाहिये । लेते हुए आत्म-सन्तोष धारण करके राजस्थानी में एक कहावत है “बोल्या ने लादा" वाणी , ले तो देना और लेना दोनों सार्थक हो जाता है। से मानव का परिचय मिलता है इसलिए वचन सोच-समझकर बोलना चाहिये । कठोर, कर्कश, छेदन-भेदनकारी मर्म दृष्टि संयम कारी, मृषा आदि कुभाषा नहीं बोलनी चाहिये । बहनें यदि भूषण पहनकर भैस को बाँटा (खाद्य) रक्खे समता तो मैंस बाँटा देखती है । बहन के आभूषण और सजावट बहुत पुस्तकें पढ़ लेने वाला और कई डिग्रियाँ ले लेने को नहीं देखती । ऐसे ही मुनिराज घरों में गोचरी जाये तो वाला विद्वान नहीं । सच्चा विद्वान तो वह है जिसने उनका ध्यान, आहार के कल्पाकल्प की तरफ रहना चाहिये, जीवन में "समता" रखना सीख लिया है। बहराने वाले की सजावट या घर की सजावट की तरफ देखने की आवश्यकता नहीं। तृष्णा रोकने का उपाय महलों और हवेलियों में रहने वालों को झोंपड़ी में धन, रक्षा नहीं करता रहने वालों की तरफ देखना चाहिये । ऐसा करने से उनकी अनाथी मुनि जब गृहस्थ थे उनके पास बहुत वैभव तृष्णा रुक सकती है। था किन्तु वह वैभव उनकी रोगादि से रक्षा नहीं कर सका, स्वयं श्रम करो ऐसे ही भाइयो ! तुम भी अनाथ हो, धन-वैभव, परिवार "काम सुधारो तो डीलां पधारो" जो कार्य अपने हाथ तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते हैं। से हो सकता है वह अपने हाथों से कर लेना चाहिये । सच्ची रक्षा तो धर्म से होती है। रक
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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