________________
[३]
श्री मित्र प्रसाध थी श्री गुरदत प्रसाद थी
पूज्य श्री नृसिंहदास जी महाराज की कुछ रचनाएँ | ५४५
दुहा
विध जपतां श्रीकार । नत जपीयां जयकार ॥१॥
सकल वांछत फल सीजसे पंच पदां प्रसाय ।
तेहनी सुर सानिध करे जिम श्रीमती सुषदाय || २ ||
[ एक दिवस लंकापती ॥ए देसी ॥]
भरत क्षेत्र छै अती भलो पोतन पुर निगर तिलो गिढ़ मिढ मिंदर सोभा घणी ए ।
जतु सतु राजा भलो न्याव नीत कर आगलो आ० राणी तो छं धारणी ए ॥ १ ॥
सुगुपत नामै विवहारीयो, समगत सुधो धारीयों धा० मिथ्या मत मांनै नही ए । श्रीमती नामै बेटी छइ गुण मणी केरी पेटी छइ पे० सील रतन करने सही ए ॥ २ ॥
एक मिथ्याती वांणीयो बेटो आछो जांणीयौ जां० श्रीमती नै देषी सही ए । रूप देषीने मोहीयो परणवा वांछे सोहीयो सो० मध्यामत भणी देवे नहीं ए ॥ ३ ॥ कपट करी श्रावक होइ श्रीमती नै परणी सोइ प० आपण घर आवीयो ए । कटुंब सहु छै मिथ्या ती श्रीमती घर मै जाती घ० काम काज सहु सावीयो ए ॥४॥
जैनधर्म करतां भणी सासु नणदी पीजे घणी षी० तब बाइ चिते सही ए । आपणा कर्म सहीजीए केहने दोस न दीजिए दी० धर्म थकी चुके नही ए ॥ ५ ॥
भरतार श्रीमती उपरे द्वेष वहै तो नहीं डरे न० ए स्त्री ने मारीए ए । बीजी स्त्री परणीजे संसारी सुष विलसीजे विo एहवो मन माहे धारीए ए ||६||
000000000000 000000000000
*FOODFCEDE