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________________ ५२६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० DD .... बढ़ गये। इस तरह नौ पूर्व ही शेष रह पाये । एक पूर्व आचार्य वज्र किसी को दे भी नहीं पाये और उनका स्वर्गवास हो गया। अनुयोग पृथक्कर्ता - आचार्य रक्षित ने अनुभव किया कि युग प्रभावानुसार श्रमणों और विद्यार्थियों की बुद्धि क्रमशः क्षीण होती जा रही है । ऐसी स्थिति में समग्र श्रुत का एक ही साथ अध्ययन संभव नहीं होगा और अध्ययन ठीक नहीं होने पर श्रुत के विलुप्त होने का भय था, अत: उन्होंने चारों अनुयोगों को पृथक् कर दिया। अनुयोगों का यह पृथक्करण सामान्य प्रज्ञा वालों के लिये बड़ा उपयोगी रहा । अल्पधी व्यक्ति भी श्रु त लाभ पा सके । (२४) आर्य नाग स्वामी श्रीनाग स्वामी का दीक्षा काल वीर नि. सं. ५६२-५६३ का माना जाता है। २८ वर्ष सामान्य मुनिपदपर रहकर तथा ६६ वर्ष आचार्य पद निभाकर सुदृढ़ शासन सेवाएँ की वी.नि.सं. ६८६ में स्वर्गवास पाये। आप कुछ न्यून १० पूर्व के ज्ञाता थे। (२६) आर्य सढील अणगार (स्कन्दिल) आर्य स्कन्दिल के विषय में सर्वाधिक प्रसिद्ध घटना उनके द्वारा माथुरी वाचना करवाना है। इनका कार्य काल वी.नि.सं. ८२३ से ८४० के आस-पास का मान्य है। देश में दुर्भिक्ष आदि कई कठिन कारणों से साधु समुदाय विच्छिन्न हो रहा था। श्र तोपस्थिति की बड़ी हानि हो रही थी। ऐसी स्थिति में आर्य स्कन्दिल का मथुरा में साधु समुदाय को एकत्रित कर व्यवस्थित वाचना करना बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य रहा । उपलब्ध आगम माथुरी वाचना के ही माने जाते हैं। चैत्यवास, आचार शैथिल्य का पर्याय भगवान महावीर ने श्रमण पर्याय की सुरक्षा और श्रमण के अध्यात्मिक अभ्युदय को प्रगतिशील रखने हेतु एक व्यवस्थित आचार संहिता का निर्देश किया। तदनुसार भगवान महावीर का श्रमण संघ वीर निर्वाण बाद भी ६-७ शताब्दियों तक विधिवत् आचार धर्म का पालन करता हुआ प्रगति करता रहा । दुष्काल आदि कठिनाइयों तथा श्रमण संघ में सुविधा स्नेही मनोवृत्ति का यत्र तत्र प्रवेश होने से सातवीं शताब्दी में कहीं-कहीं आचार शैथिल्य प्रकट होने लगा जो क्रमशः बढ़ता ही गया ।। बी.नि. की आठवीं शताब्दी के मध्य और उत्तरार्ध तक तो यह शैथिल्य अपनी चरम सीमा तक पहुंचने लगा था। उस स्थिति का चित्रण करते हुए आचार्य हरिभद्र कहते हैं। "ये चैत्य में निवास करते हैं । पूजादि आरम्भ कार्य कराते हैं। देव द्रव्य भोगते हैं तथा जिन शालाएँ, मन्दिर आदि बनवाते हैं। हरिभद्र कहते हैं कि अधिक क्या कहें । ये चैत्यवासी बिना नाथ (नकेल) के बैल की तरह है। ये किसी नियम में बंधे नहीं हैं। चैत्यवास की स्थिति में शिथिलाचार खुलकर फैला । श्रमण धर्म लगभग विलुप्त-सा हो रहा था। सुविहित आचार वाले मुनि बिलकुल नहीं थे ऐसी बात तो नहीं थी किन्तु आठवीं शताब्दी (वी. नि.) के अन्त तक लगभग चैत्यवासियों का प्राबल्य हो चुका था। मूर्ति और मूर्तिवाद चैत्यवास युग की ही देन है । नितान्त आत्मानुलक्षी, निराडम्बरी जैनधर्म चैत्यवास के पनपने के साथ ही अपने मौलिक स्वरूप से बहुत कुछ हट चुका था। काजज १ चेइय मढाइ वासं, पूयारंभाइ निच्च वासित्तं । . देवाइ दव्व भोगं, जिणहर सालाइ करणं च ॥ २ अन्नस्थिय बसहा इव ।-संबोध प्रकरण ATER - 圖圖圖圖圖区 Jain Education International For Private & Personal use only wwwjamenorary.orge
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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