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________________ नहीं । जंन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५२५ शिवभूति को समझाया किन्तु उसने अपनी विरुद्ध प्ररूपणा छोड़ी नहीं । उसने कहा- सवस्त्र सग्रंथ है, निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ को वस्त्र कल्पता ही नहीं, ऐसा कहकर वह निर्वस्त्र हो विचरने लगा । उसने आचारांगादि शास्त्रों के विच्छेद होने उसके साथ कहते हैं उसकी बहन भी नग्न हुई थी, दिया । शिवभूति ने कहा- स्त्रियाँ निर्ग्रन्थ नहीं हो करते हुए की भी प्ररूपणा की । विद्यमान शास्त्रों को कृत्रिम कहने लगा । किन्तु किसी सज्जन ने किसी उच्च भवन से उस पर वस्त्र डाल सकतीं। इन्हें मोक्ष भी नहीं । इस तरह कई विरुद्ध प्ररूपणाएँ इसने एक भिन्न मत की स्थापना की जो 'दिगम्बर' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । (१८) आचार्य फल्गुमित्र वाचार्य मुखगिरि के पट्ट पर आचार्य फल्गुमित्र सुशोभित हुए इनके बाद क्रमश:--- (१६) धारण गिरि, (२०) आचार्य शिवभूति, (२१) आर्यभद्र, (२२) आर्यनक्षत्र, (२३) आर्य रक्षित, (२४) आर्य नाग स्वामी, (२५) जेहल विष्णु, (२६) सढील अणगार, (२७) देवध क्षमाश्रमण | प्राप्त पट्टावली में यह क्रम है, अधिक परिचय भी उसमें उपलब्ध नहीं है । अन्य पट्टावलियों में देर्वाध क्षमाश्रमण के पूर्व कई अन्य नामोल्लेख के साथ क्रम चलता है। वस्तुतः कई गच्छ और उपगच्छों के अस्तित्त्व में आ जाने से कोई निश्चित एक क्रम बन नहीं सका | जैन धर्म के मौलिक इतिहास में इससे भिन्न क्रम दिया गया है। इस क्रम के अनुसार स्थूलभद्र के बाद क्रमशः आचार्य महागिरि, आचार्य सुहस्ति, आचार्य गुण सुन्दर, आचार्य श्याम, आचार्य सांडिल्य, आचार्य रेवती मित्र, आचार्यधर्म, आचार्य भद्रगुप्त, आचार्य श्री गुप्त, आचार्य वज्र, आचार्य रक्षित, आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र, आचार्य वज्रसेन, आचार्य नागहस्ति, आचार्य रेवती मित्र, आचार्य सिंह, आचार्य नागहस्ति, आचार्य भूतदिन्न, आचार्यकालकाचार्य, आचार्य सत्यमित्र, आचार्य देवधिगणी क्षमाश्रमण । इस तरह विविध कई क्रम उपलब्ध होते हैं । पट्टावलीगत आचार्यों में से जिनका जितना परिचय प्राप्त हो सका वह संक्षिप्त में नीचे दिया जाता है । (२३) आचार्य रक्षित आचार्य रक्षित का जन्म वीर नि० सं० ५२२ का माना जाता है । २२ वर्ष की वय में संयम स्वीकार किया, ४२ वर्ष सामान्य मुनि पद पर रहे, १३ वर्ष आचार्य पद पर, इस तरह बीर नि० सं० ५६७ में स्वर्गवास प्राप्त हुए । इनके बचपन की बात है जब ये पाटिलपुत्र से विशेष शिक्षा लेकर अपने जन्म स्थान दशपुर आये तो, सभी ने स्वागत किया किन्तु माता रुद्रसोमा जो जैन तत्त्वानुरागिनी थी उसने कहा, यदि दृष्टिवाद पढ़कर आता तो मुझे प्रसन्नता होती । सुपुत्र रक्षित दृष्टिवाद पढ़ने आचार्य गुरु तोषली पुत्र के पास गये और दृष्टिवाद पढ़ने लगे । शास्त्राभ्यास करते वैराग्योदय हुआ और संयमी बन गये । हुए आचार्य तोषली पुत्र ने रक्षित मुनि को सुयोग्य समझकर पूर्वज्ञान प्राप्त करने हेतु आर्य वज्र के पास भेजा । आर्य वज्र की सेवा में पहुँच कर आर्य रक्षित ने नौ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। घर से प्रस्थान करने पर पुनः रक्षित के घर नहीं लौटने से सभी को बड़ी चिन्ता हुई उन्हें ढूँढ़ने को छोटा भाई फल्गुरक्षित को भेजा। गुरक्षितढ़ता हुआ यहां पहुंचा जहां आरक्षित पूर्वज्ञान प्राप्त कर रहे थे। वहाँ पहुँचकर फल्गुरक्षित ने घर लौटने का आग्रह किया । उसने कहा कि यदि तुम जन्मभूमि में आओगे तो बड़े उपकार होंगे, कई पारिवारिक जन दीक्षित होंगे। रक्षित मुनि ने कहा, यदि ऐसा है तो पहले तुम तो दीक्षित हो जाओ । फल्गुरक्षित ने आज्ञा शिरोधार्य कर संयम ले लिया । उसकी तत्परता देख रक्षित मुनि का जन्मभूमि की तरफ जाने का आकर्षण बन गया, फिर वे वहाँ अधिक ज्ञान लाभ नहीं ले पाये और आज्ञा लेकर अपने जन्मस्थान की तरफ Jain Education International For Private & Personal Use Only py 000000000000 - GRIM 000000000000 1000/ LABRYKLON ::S.BA/www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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