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५२० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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मणक की दीक्षा और दशवैकालिक की रचना
श्री सयंभव भट्ट आचार्य प्रभव द्वारा प्रतिबोधित होकर संयमी हुए, तब वे अपने पीछे एक सुन्दर पत्नि को गर्भवती अवस्था में छोड़ आये थे।
सयंभव से सम्बन्धित व्यक्ति इस चिन्ता में थे कि कोई पुत्र भी नहीं था जो भट्ट वंश को प्रगति दे ।
___ सम्बन्धित कुछ स्त्रियाँ, श्री सयंभव की पत्नि से यह जानने का यत्ल करने लगीं कि कोई आशावल्लरी विद्यमान है या नहीं?
किसी ने पूछा तो भट्ट जी की पत्नि ने मनाक शब्द का उच्चारण किया जिसका अर्थ 'कुछ होता है। यह मनाक शब्द ही मणक के रूप में फैला और कालान्तर में जब पुत्रोपलब्धि हुई तो उसका नाम ही 'मणक' प्रसिद्ध हो गया।
'मणक' बाल भाव से मुक्त होते ही ज्योंही कुछ सयाना हआ, अपने पिता के विषय में जानने का प्रयास करने लगा। एक दिन अपनी माता से ही पिता के विषय में पूछ बैठा तो मा ने पिता के दीक्षित होने का सारा वृत स्पष्ट बता दिया ।
मणक ने निश्चय किया मैं अपने पिता के दर्शन करूंगा । वह उन्हें ढूंढ़ने को घर से निकल पड़ा।
एक दिन वह चम्पा नगरी में पहुंच रहा था कि नगर के बाहर ही उन्हें एक मुनि मिले । वे मुनि और कोई नहीं, आचार्य सयंभव ही थे जो जंगल को आये थे । मणक ने बहुत ही भोले भाव से आचार्य को पूछा कि क्या आप मेरे पिता सयंभव आचार्य को जानते हैं ? मैं उनका पुत्र मणक हूँ, मैं उन्हें ढूंढ़ रहा हूँ। कहीं मिले तो मैं उनके दर्शन करू?
आचार्य सयंभव ने कहा-हाँ, वे आचार्य यहीं हैं तुम हमारे उपाश्रय में उन्हें पहचान लोगे । 'मणक' साथ चला और उपाश्रय में उन्हीं मुनि को आचार्य के पट्ट पर बैठा देख, वह बड़ा प्रसन्न हुआ । वह समझ गया कि मुझे यहाँ तक लाने वाले मुनि ही मेरे पिता है । वह उनकी चरणोपासना करने लगा । आचार्य ने उसे उपदेश देते हुए कहा कि वह अपने पिता पुत्र के सम्बन्ध को प्रकाशित न करे ।
'मणक' प्रतिबोधित हो संयम पथ पर आ गया।
आचार्य सयंभव ने 'मणक' के आयुष्य को बहुत थोड़ा देखकर लघु और सारगर्भित दशवैकालिक सूत्र की संरचना कर उसे द्वादशांगी का सारभूत ज्ञान प्रदान किया।
'मणक' कुल छह माह संयमी जीवन में रहा । समाधि पूर्वक काल कर स्वर्गगति प्राप्त की। आचार्य सयंभव ने मुनियों को "मणक" का परिचय देते हुए अपना सम्बन्ध प्रकट किया।
मुनि बड़े आश्चर्य चकित हए, इतने लम्बे समय तक परिचय नहीं देने का कारण बताते हुए आचार्य ने कहा-परिचय ज्ञात होने पर अन्य मुनि सेवा लाम नहीं लेने देते तथा अन्य मुनिगण उसकी सेवा करते, सेवा से वंचित होने से उसकी आत्मा सेवा एवं निर्जरा का लाभ नहीं उठा सकती। स्वर्गगमन
श्री शय्यंभव ने २८ वर्ष की युवावस्था में संयम ग्रहण किया । ११ वर्ष सामान्य मुनि पद पर रहे । २३ वर्ष आचार्य पद पर रह कर जिन शासन को तेजस्विता के साथ चमकाया और वीर निर्वाण संवत् ६६ में ६२ वर्ष की आयु पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए। स्वर्गवास से पूर्व, सुयोग्य शिष्य यशोभद्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
५. आचार्य श्री यशोभद्र स्वामी आचार्य श्री यशोभद्र के विषय में अधिक जानकारी नहीं मिल सकी, ये याज्ञिक ब्राह्मण गौत्रीय थे । आचार्य सयंभव से प्रतिबोधित होकर २२ वर्ष की वय में संयमी हुए। आचार्यसयंभव के स्वर्गगमन के बाद आपको पट्टारोहण किया गया । ५० वर्ष आचार्य पद पर रहे । वीर निर्वाण संवत् १४८ में श्री संभूति विजय को उत्तराधिकारी घोषित कर स्वर्गवास प्राप्त किया।
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