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पूर्वधर काल
( ३ ) श्री प्रभव स्वामी
वैराग्यादर्श श्री जम्बूस्वामी के निर्वाण बाद, श्री प्रभव स्वामी को भगवान का तृतीय पट्ट धर नियुक्त किया । जन्म आदि परिचय
जैन परम्परा एक ऐतिहासिक यात्रा | ५१६
श्री प्रभव राजकुमार थे। इनका जन्म जयपुर नरेश के यहाँ ईसा पूर्व ५५७ में हुआ । योग्यावस्था में सर्वकलाओं में पारंगत होने पर ज्यों ही प्रभव युवावस्था में आये। किसी कारण से पिता इनसे अप्रसन्न हो गये । राज्याधिकार का जो कि इनका जन्म सिद्ध अधिकार था, छीन लिया और उनके स्थान पर लघुभ्राता को राज्य दे दिया । इस पर प्रभव बड़े खिन्न हुए और राजधानी छोड़ कर बाहर निकल गये। उन्होंने दल बनाकर डाका डालना
प्रारम्भ कर दिया।
श्री प्रभव के जीवन की आगे की घटनाओं से पाठक जम्बू के जीवनवृत के साथ ही परिचित हो चुके हैं । डाकू अर्थात् पतित से पावन होने का प्रभव जैसा पुरुषार्थ, विश्व में बहुत कम दिखाई देता है ।
उत्तराधिकारी की शोध
श्री प्रभव स्वामी ने ७५ वर्ष संयम पालन किया उसमें से अन्तिम ११ वर्ष तक बड़ी निपुणता के साथ चतुर्विध संघ का संचालन किया ।
अपने आखिरी वर्षों में उन्हें इस बात का बड़ा विचार था कि संघ में कोई मुनि ऐसा सुयोग्य दिखाई नहीं दे रहा था जो भविष्य में संघ का संचालन कर सके ।
एक रात ऐसी ही विचारधारा में डूबे चिन्तन-रत थे तभी एक व्यक्तित्त्व उन्हें ध्यान में आया जो संघ संचान के लिए सुयोग्य सिद्ध हो सकता था ।
उन्होंने दूसरे ही दिन राजगृह की तरफ विहार कर दिया। राजगृह के बाहर उद्यान में ठहर कर दो मुनियों को नगर में कुछ | आदेश के साथ विदा किया। दोनों मुनि जहाँ आर्य शय्यंभव यज्ञानुष्ठान में रत थे, वहाँ आकर बोले, "अहो कष्टं - अहो कष्टं कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते" जब यह शय्यंभव ने सुना तो, उन्होंने सोचा, क्या इतना कष्ट उठाकर जो अनुष्ठानादि कर रहे हैं, ये तत्त्व स्वरूप नहीं है ? क्या इनसे भी अधिक कोई तत्त्व हो सकता है ? ये मुनि हैं, असत्य के त्यागी हैं, अवश्य इनके कथन में सच्चाई है, मुझे और विशेष तत्त्व ज्ञान को समझना चाहिये ।
यज्ञानुष्ठान सम्पन्न कर पं० शय्यंभव ने आचार्य प्रभव के पास पहुँचकर विशेष तत्त्व जानने की जिज्ञासा प्रकट की । आचार्य ने शुभावसर देख शय्यंभव को वीतराग मार्गीय तत्त्वज्ञान का सम्यकुबोध प्रदान किया जिसे सुनकर
शय्यंभव बड़े प्रभावित हुए।
उन्होंने आचार्य प्रभव के पास संयम लेकर आत्म-कल्याण का पथ स्वीकार कर लिया । आचार्य, प्रभव भी अपनी एक चिन्ता से मुक्त हुए।
थोड़े ही समय में आचार्य प्रभव शय्यंभव को संघभार देकर अपने को निश्चिन्त बना दिया ।
स्वर्ग गमन
आचार्य प्रभव ३० वर्ष गृहस्थ रहे, ६४ वर्ष सामान्य मुनि पद पर तथा ११ वर्ष संघ के आचार्य पद पर रहे इस तरह ७५ वर्ष दीर्घ संयम का पालन कर वीर निर्वाण संवत् ७५ में स्वर्ग गति प्राप्त हुए ।
(४) आचार्य शय्यंभव
महान् प्रभाविक आचार्य रत्न श्री प्रभव स्वामी के स्वर्गवास बाद, उनके पवित्र गौरवशाली पट्ट पर श्री सयंभव मुनि रत्न को विराजित किया गया ।
आचार्य शय्यंभव कैसे प्रतिबोधित हुए ? यह तो पाठक पूर्वाचार्य के वृत्त में पढ़ ही चुके हैं ।
For Priva
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