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५१४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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प्रभु प्रायः गौतम स्वामी को उद्दिष्ट कर उपदेश देते और गौतम भी किसी भी तरह की शंका का समाधान तत्काल केवल प्रभु से पूछते ।
चार ज्ञान तथा चौदह पूर्व के अधिकृत विद्वान होते हुए भी उन्हें तनिक भी गर्व नहीं था। प्रतिक्षण प्रभु की आज्ञा को शिरोधार्य करने में तत्पर रहते ।।
- आनन्द के अवधिज्ञान के प्रसंग में आनन्द का पक्ष सत्य था और जव गौतम स्वामी को प्रभु के द्वारा निर्णय होने पर उस सत्यता का बोध हो गया तो, प्रभु आज्ञा शिरोधार्य कर, उन्होंने तत्काल गाथापति आनन्द के निकट पहुँच कर "खमत खामणा" किये।
श्री गौतम स्वामी प्रायः प्रभु के साथ ही विचरण किया करते । वे निरन्तर अनन्य भाव से सेवा करते ।
भगवान महावीर के प्रति श्री गौतम स्वामी का असीम राग-भाव था, कहते हैं-यही कारण था कि भगवान महावीर की उपस्थिति में उन्हें कैवल्य नहीं हो सका।
भगवान महावीर ने इस असीम अनुराग भाव का कारण कई भवों का संसर्ग बताया। कहते हैं-भगवान महावीर की आत्मा जब त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में थी तब गौतम की आत्मा उनके सारथी के रूप में निकट सम्बन्ध में थी इस तरह कई भवों का पारस्परिक स्नेह-सम्बन्ध प्रभु ने स्पष्ट किया।
श्री गौतम स्वामी के असीम अनुराग को देखकर ही प्रभु ने अपने निर्वाण से पूर्व उन्हें देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोधित करने भेज दिया। श्री गौतम स्वामी प्रभु आज्ञा शिरोधार्य कर वहाँ गये । पीछे से प्रभु का निर्वाण हो गया।
यही प्रसंग श्री गौतम स्वामी के केवलोपार्जन का बना ।
श्री गौतम स्वामी को उक्त अवसर पर बड़ा शोक हुआ किन्तु कहते हैं-इन्द्र ने अनुनय विनय पूर्वक उन्हें धैर्य प्रदान किया। उस अवसर पर उनकी आध्यात्मिकता ने निर्मोह की भूमिका का क्रान्तिकारी संस्पर्श किया और परम ऋजुकर्मी श्री गौतम स्वामी को तत्काल केवल ज्ञान हो गया । निर्वाण
श्री गौतम स्वामी ने केवली बनने के बाद बारह वर्ष तक भूमण्डल पर सार्थक विचरण किया। अन्त में राजगृह के गुणशील चैत्य में संलेखना संथारा सहित मोक्ष पद प्राप्त किया।
भगवान श्री गौतम स्वामी ५० वर्ष की वय में संयमी बने । तीस वर्ष प्रभु की सेवा में रहे और बारह वर्ष केवली; यों कुल १२ वर्ष की कुल उम्र पाये।
(१) भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर 'आर्य सुधर्मा' भगवान महावीर के प्रधान शिष्यरत्न श्री गौतम स्वामी को प्रभु निर्वाण के तुरन्त वाद केवल ज्ञान हो चुका था।
केवली सर्वथा संसार निरपेक्ष होते हैं अतः उन्हें किसी पद पर स्थापित नहीं किया जाता । वे नितान्त आत्मानंद विलासी, अपने में परिपूर्ण होते हैं।
आर्य सुधर्मा को छोड़कर शेष-गणधर प्रभु की उपस्थिति में ही निर्वाण पा गये थे। उस स्थिति में प्रभु निर्वाण के बाद प्रभु द्वारा स्थापित विशाल चतुर्विध संघ की समुचित धार्मिक व्यवस्था हेतु प्रभु के ही सुयोग्य शिष्य श्री सुधर्मा-स्वामी को कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन प्रभु के गरिमापूर्ण, धर्म पट्ट पर स्थापित किया ।
अन्य गणधरों के जो गण थे-उनका भी श्री सौधर्म गच्छ में विलीनीकरण हो गया । इस तरह, प्रभु के बाद वीर-संघ की सम्पूर्ण व्यवस्था का भार पुण्यश्लोकी, गुणालय आर्य सुधर्मा के सुयोग्य स्कन्धों पर उतर आया। जन्मादि अन्य परिचय
श्री सुधर्मा स्वामी का जन्म ईसा पूर्व ६०७ वर्ष विदेह प्रदेश के कोल्लाग नामक ग्राम में हुआ। पिता का नाम धम्मिल्ल था तथा माता का नाम भद्दिला । बाल्यावस्था से ही धर्म के प्रति अनुराग होने के कारण 'सुधर्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सांसारिकता के प्रति बाल्यावस्था से ही एक उदासीनता उनके मन में छाई हुई थी, नहीं चाहते हुए भी पारिवारिक जनों ने एक कन्या से लग्न कर दिया । इन्हें एक कन्या की भी प्राप्ति हुई।
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