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________________ जन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५१३ 000000000000 000000000000 ANINGH सातिशायी भव्य संरचना देखकर दंग रह गये । वे अपलक नेत्रों से प्रभु के भव्य आनन की तरफ निहारते ही रह गये । वे एक शब्द भी नहीं बोल पाये । प्रभु ने पहले नामोच्चारण करते हुए गौतम के चाकचिक्य को भंग किया। प्रभु ने स्नेहसिक्त वाणी से गौतम से वार्तालाप करते हुए उनके हृद्गत भावों को स्पष्ट प्रकट कर दिया। वेदों के कुछ वाक्यों के विषय में इन्द्रभूति गौतम के मन में शंकाएँ थीं। प्रभु ने उनका ठीक-ठीक समाधान करते हुए दृढ़ता के साथ जीव का अस्तित्व सिद्ध कर दिया। प्रभु ने कहा-गौतम ! आत्मा एक नहीं अनेक हैं और वह देह से भिन्न है । पाँच भूतों से आत्मा की उत्पत्ति संभव नहीं, आत्मा अलग द्रव्य है । प्रभु की आत्म-विवेचना से गौतम के अन्तर्चक्ष खुल गये । प्रभु के तत्त्वोपदेश से गौतम बैराग्योत्साह से तरंगित होने लगे। उन्होंने अपने पाँच सौ विद्यार्थियों को भी तत्त्वोपदेश दिया। इस तरह सभी ने एक साथ प्रभु के चरणों में 'जैनेन्द्रिया' दीक्षाग्रहण कर अपने जीवन को अध्यात्म मार्ग पर बढ़ा दिया । विक्रम पूर्व ५०० वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन यह प्रव्रज्या ग्रहण समारोह संपन्न हुआ। ४४०० शिष्यों के साथ इन्द्रभूति गौतम प्रभु के पास दीक्षित हो गये । इस संवाद के विस्तृत होते ही अन्य विद्वानों में आक्रोश और आश्चर्य की लहर दौड़ गई। प्रभु को वाद कर परास्त करने की उम्मीद लेकर अग्नि भूति, वायुभूति अपने पाँच-पाँच सौ शिष्यों को लेकर उपस्थित हुए, किन्तु इन्द्र भूति की तरह उनका भी समाधान कर प्रभु ने उन्हें प्रतिबोधित किया और उन्होंने संयम स्वीकार कर आश्चर्य को और अधिक विस्तृत कर दिया । व्यक्त और सुधर्मा भी अपने सहस्र शिष्यों सहित उपस्थित हुए किन्तु वे सभी पूर्ववत् प्रवजित हो गये। मंडित और मौर्य पुत्र के साढ़े तीन-तीन सौ शिष्य थे, अकम्पित अचलभ्राता मैतार्य और प्रभास के तीन-तीन सौ शिष्य थे। ये सभी प्रभु के पास इन्द्रभूति की ही तरह उपस्थित हुए । प्रभु ने सभी की विविध शंकाओं का बिना कहे ही समाधान कर दिया और उन्हें प्रतिबोध देकर संयम प्रदान किया । इस तरह पहली देशना में ही प्रभु के ४४११ शिष्य (११ विद्वान एवं उनके ४४०० शिष्य) हुए। प्रभु ने इन्द्रभूति आदि को त्रिपदी, उत्पाद व्यय और ध्रौव्य का सद्बोध देकर वस्तु स्वरूप का सम्यकबोध दिया। इन गणधरों ने त्रिपदी पर मनन कर चौदह पूर्व' की रचना की।। 'अत्थं भासेइ अरहा, सुत्तं गत्थंति गणहरा' इस सिद्धान्त के अनुसार इन गणधरों के द्वारा द्वादशांगी की रचना सम्पन्न हुई। प्रभु ने सुयोग्य समझ कर इन प्रधान ग्यारह मुनियों को 'गणधर' पद प्रदान किया। इनमें अकम्पित और अचल का एक ही गण था। इसी तरह मैतार्य और प्रभास का भी एक गण था । अन्य सभी का गण भिन्न था, यह समुदाय की भिन्नता नहीं थी, अपितु प्रभु के द्वारा दी गई वाचना की अपेक्षा ये गण थे। प्रभू से अनन्यता यद्यपि प्रभु के शासन में ग्यारह गणधर थे किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि उनमें सर्वाधिक महत्त्व केवल गौतम स्वामी को मिला। Augni i १ उत्पाद पूर्व २ अग्रायणी पूर्व ३ वीर्य प्रवाद पूर्व ४ अस्ति नास्ति प्रवाद पूर्व ५ ज्ञान प्रवाद पूर्व ६ सत्य प्रवाद पूर्व ७ आत्म-प्रवाद पूर्व ८ कर्म प्रवाद पूर्व ६ प्रत्याख्यान पूर्व १० विद्यानुप्रवाद पूर्व ११ कल्याणवाद पूर्व १२ प्राणावाय पूर्व १३ क्रिया विशाल पूर्व १४ लोकबिन्दुसार पूर्व P010 IMa
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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