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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ५०३ से आहार ग्रहण नहीं कर रहे हैं । राजा ने नगर के नर-नारियों को आहार देने की विधि भी बता दी किन्तु अभिग्रह की बात को कोई जानता ही नहीं ।
संयोगवश एक दिन प्रभु धन्ना श्रेष्ठ के घर गोचरी को पधारे। वहाँ सेठानी ने चन्दना नामक राजकुमारी को तल घर में बन्द कर रखा था। चन्दना चम्पापति दधिवाहन की राज दुलारी थी, चम्पा को राजा शतानीक ने अचानक लूटा, दधिवाहन बीहड़ वनों में चले गये । धारिणी और कन्या को एक सैनिक उठा लाया, सैनिक धारिणी से पापेच्छा प्रकट करने लगा तो, धारिणी ने जिह्वा खींचकर अपना बलिदान दे दिया। शील की वेदी पर धारिणी का यह महान् बलिदान सर्वदा अमर रहेगा । सैनिक ने कन्या को लाकर धन्ना को बेच दिया । धन्ना पुत्रीवत् उसे पालने लगे किन्तु सेठानी ईर्षावश द्वेष करने लगी, एक दिन अवसर देखकर सेठानी ने चन्दना का शिर मुंडकर हथकड़ी-बेड़ी डाल, तल घर में डाल दिया। चन्दना ने वहाँ तीन दिन बिताये उसने तेला कर दिया। चौथे दिन धन्ना, कहीं बाहर से आये तो चन्दना की यह स्थिति देखकर बड़े दुखी हुए। वे लोहकर्मी को बुलाने गये कि चन्दना के लोह बन्धन काटदे तभी प्रभु महावीर का उधर पदार्पण हो गया।
प्रभु को देख चन्दना अप्रत्याशित आनन्द से विभोर हो उठी किन्तु प्रभु आकर पुनः लौटने लगे, चन्दना के लिए यह असह्य हो गया कि प्रभु बिना ही आहार लिए पुनः लौट जायें । चन्दना का हृदय अपनी विपन्नावस्था पर रो उठा और उसकी आँखों से अश्र धारा प्रवाहित हो चली। प्रभु की अभिग्रह पूर्ति में केवल यह एक बात की ही तो कमी थी, अश्रु नहीं देखकर ही तो प्रभु लौट रहे थे अब जबकि अश्रु उमड़ आये प्रभु ने अपने अभिग्रह की पूर्ति देखकर चन्दना के द्वार पर फिर पहुंचे और पांच माह और पच्चीस दिन के बाद चन्दना के हाथों उड़द के बाकुले ग्रहण किये। तभी देवताओं ने दानोत्सव मनाया। चन्दना के बन्धन टूट पड़े और वह सामान्य स्व-स्थिति को पा गई । सारा कौशाम्बी नगर हर्षित हो उठा। कान में कोलें ठोंक दी
प्रभु छम्माणि ग्राम के बाहर उद्यान में ध्यानस्थ थे। किसी ग्वाले ने ध्यानस्थ महावीर को अपने बैलों की रखवाली का सन्देश दिया किन्तु प्रभु मौन रहे। वह कहीं जाकर जब वापस आया तो उसे बैल नहीं मिले । प्रभु को ही बैलों का चोर समझ कर उसने क्रुद्ध हो भयंकर कुकृत्य कर दिया।
उसने प्रभु के दोनों कानों में कीलें ठोंक दी। यह असह्य वेदना थी किन्तु प्रभु ने कोई प्रतिकार नहीं किया ।
वहाँ से प्रभु मध्यम पावा पधारे। वहाँ "खरक" नामक वैद्य और सिद्धार्थ नामक वणिक् ने मिलकर प्रभू के कानों से कीलें निकालीं और समुचित उपचार किया। प्रभु पर उनके समस्त उपसर्गों में यह कीलों वाला उपसर्ग घोर पीड़ाकारक था। प्रभु की विशाल तपाराधना
साढ़े बारह वर्ष से कुछ अधिक काल तक प्रभु छद्मस्थ रहे, इस बीच अनेकों उपसर्ग तो सहे ही, तप भी प्रभु ने कम नहीं किया। इतने लम्बे समय में केवल तीन सौ उनचास दिन ही आहार लिया। शेष समय तपश्चर्या में व्यतीत हुआ।
प्रभु ने निम्न तपाराधनाएँ सम्पन्न कीछहमासी, तप, १ पांच दिन कम छहमासी तप १ चातुर्मासिक तप ६ त्रैमासिक तप २ ढाई मासिक तप २ द्वि मासिक तप ६ मासिक तप १२ पाक्षिक तप ७२
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