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५०२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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(१७) घुटनों तक शरीर को भूमि में उतार दिया। (१८) चक्रक वायु से भगवान चक्र दिये । (१६) विमान में बिठाने और स्वर्ग का लालच दिया । (२०) अप्सरा बनकर राग भाव प्रदर्शित किया।
इतने भयंकर उपसर्गों के बीच भी प्रभु स्थिरतापूर्वक आत्म-ध्यान में स्थित रहे, कहीं भी दीनता नहीं लाये तो संगम ने एक नया मार्ग अपनाया। साधु रूप बनकर एक घर में सेंध लगाने लगा, लोगों ने चोर समझकर पकड़ा तो उसने कहा-मैं तो मेरे गुरु की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, आप मेरे गुरु से बात करें । मैं अपराधी नहीं हूँ। उसने महावीर को अपना गुरु बता दिया, जनता ने उन्हें चोर समझकर पकड़ा और पीटने लगी तो, महाभूतिल नामक एक ऐन्द्रजालिक व्यक्ति ने भगवान को पहचानकर छुड़ाया। जनता ने उस पहले वाले चोर को ढूंढ़ना चाहा किंतु वह नहीं मिला।
संगम ने इस तरह प्रभु पर कई बार चोरी के आरोप लगवाए।
एक बार प्रभु के पास शस्त्र संग्रहित कर दिये । यह घटना 'तोसलिगाँव' की है । वहाँ के अधिकारी ने दुश्मन समझ कर प्रभु को फांसी पर लटकाया किंतु फांसी का फंदा टूट गया। ऐसा सात बार हुआ फिर प्रभु को छोड़ दिया गया। संगम प्रभु की भिक्षा में भी अन्तराय खड़ी कर देता था। शुद्ध आहार भी सदोष बना देता तो प्रभु आहार भी नहीं ले सकते। इस तरह संगम ने छह मास तक प्रभु को कई उपसर्ग और कष्ट दिये किंतु प्रभु अक्षुभित समुद्र की तरह स्थिर रहे, अन्त में संगम क्षमा याचना करता हुआ स्वस्थान गया। जीर्ण तिर गया
वैशाली का जिनदत्त जिसे अभावग्रस्तता के कारण लोग "जीर्ण" सेठ कहा करते थे किंतु वह भावों से बड़ा समृद्ध था, वह प्रभु की आहार-दान के लिये आकांक्षा लिये प्रतीक्षा किया करता था । एक दिन प्रभु की प्रतीक्षा में था तभी प्रभु आहार के लिये निकले मार्ग में एक 'पूर्णसेठ' जो नव धनाढ्य था प्रभु वहीं पहुँच गये, उसने अनादर भाव से प्रभु को थोड़े से कुलत्थ देने के लिये दासी को कहा । दासी ने थोड़े से कुलत्थ वे भी उपेक्षा भाव से प्रभु को दिये । इस तरह प्रभु का पारणा हो गया। मावुक जीर्ण भावना ही भाता रह गया, उसे अवसर नहीं मिला फिर भी उसने बारहवें देवलोक की गति का शुभ आयुष्य बंध किया । दो घड़ी दुन्दुभी शब्द नहीं सुनता तो उसे केवल्य हो जाता । चमरेन्द्र की रक्षा
प्रभु 'सुन्सुमार' में थे, असुरेन्द्र चमरेन्द्र से शक्रेन्द्र की दिव्यता देखी न गई वह ईर्षावश प्रभु के नाम का सहारा ले, सौधर्म देवलोक में जा पहुंचा और श्री शक्रेन्द्र को ललकारा। शकेन्द्र अतुल बलशाली होते हैं उन्होंने स्व-स्थान से ही चमरेन्द्र पर बज्र फैक मारा, जो आग की लपटें छोड़ता चमरेन्द्र पर लपका। चमरेन्द्र अब डरा और प्राण बचाने को कोई स्थान ढूंढ़ने लगा । वह सीधा प्रभु के चरणों के बीच आ समाया ।
शकेन्द्र को जब यह ज्ञान हुआ तो उन्होंने कहीं प्रभु को कष्ट न हो जाये, इस दृष्टि से वज्र को वापस खींच लिया। वज्र प्रभु के चरणों से चार अंगुल ही दूर रहा था। प्रभु को कोई कष्ट नहीं हुआ किन्तु चमरेन्द्र के प्राण बच गये। कठिन अभिग्रह
प्रभु ने एकदा कौशाम्बी में विचरण करते हुए कठिन अभिग्रह धारण किया, उसमें तेरह बोल थे (१) राजकुमारी दासी हो, (२) शिर मुंडा हो, (३) हाथों में हथकड़ी हो, (४) पावों में बेड़ी हो, (५) उड़द के बाकुले हो, (६) सूप के कोने में हो, (७) मिक्षा का असमय हो, (८) आँखों में आँसू हो, (8) तेले का तप हो, (१०) देहली में बैठी हो, (११) एक पांव बाहर हो, एक पांव भीतर हो, (१२) अविवाहिता हो, (१३) बिकी हुई हो।
दान देने वाले की ऐसी स्थिति का मिलना लगभग असंभव ही था। प्रभु प्रतिदिन गोचरी के लिए हो आते, किन्तु ऐसा कठिन अभिग्रह फल जाए यह आसान नहीं था।
नगर के महामात्य की पत्नि नन्दा ने प्रभु के भिक्षा नहीं लेने पर बड़ी चिन्ता व्यक्त की, यह बात नगराधिपति सम्राट शतानीक को भी ज्ञात हुई। उनकी महारानी मृगावती भी इस बात से बड़ी चिन्तित हुईं कि प्रभु चार माह
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