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जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ४६५
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कुक्षि में स्थापित किया और त्रिशला का गर्भ देवानन्दा की कुक्षि में अवस्थित कर दिया। यह कार्य दैविक शक्ति से इतना शीघ्र और सूक्ष्मता से हुआ कि देवानन्दा या त्रिशला किसी को भी इस परिवर्तन की जानकारी नहीं हो सकी।
गर्भापहरण एक आश्चर्य है, न कि असंभव । आधुनिक वैज्ञानिकों ने गर्भ-परिवर्तन के कई सफल ऑपरेशन किये हैं । अतः देव द्वारा गर्भ-परिवर्तन को असत्य कहना अनुचित है।
श्री देवानन्दा को अपने गर्भापहार का ज्ञान तब हुआ, जब उसे उसी रात्रि में ऐसा स्वप्न आया कि उसके चौदह स्वप्न मंह से निकलकर कहीं विलीन हो गये । इस अशुभ स्वप्न का उसे बड़ा खेद हुआ।
उसी रात्रि में त्रिशला ने चौदह स्वप्न देखे और उसी दिन से उसकी खुशियां बढ़ने लगीं।
महावीर जब गर्भ में थे, उन्हें अवधि नामक दिव्य ज्ञान भी था। उन्होंने सोचा-संभवतः मेरे हिलने-डुलने से माता को कष्ट होता होगा। उन्होंने अपने को स्थिर कर दिया। किन्तु इसका परिणाम विपरीत रहा । गर्भ की क्रिया स्थगित होने से माता त्रिशला ने समझा-मेरा गर्भ नष्ट हो गया, तभी वह चुप है । बस, इस कल्पना से ही उसे असीम परिताप होने लगा।
महावीर ने माँ की तड़पन देखी तो वे द्रवित हो गये। उन्होंने हिलना-डुलना तो शुरू किया ही, साथ ही निश्चय किया कि माता-पिता की उपस्थिति में मेरा दीक्षित होना इनके लिए परिताप का कारण होगा । अतः इनके देहावसान के बाद ही मैं संयमी बनूंगा।
गर्भ की सक्रियता को पाकर त्रिशला का मन-मयूर नाच उठा । गर्भ-काल की परिपूर्णता होने पर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की अर्द्धरात्रि में भगवान महावीर का शुभ जन्म हुआ।
जिस समय शिशु महावीर का जन्म हुआ, एक क्षण के लिए त्रिभुवन में प्रकाश की एक किरण फैल गई। एक क्षण के लिए नारकों का भी कष्ट-उत्पीडन रुक गया।
नवजात प्रभु के सुन्दर-सुकुमार मुख-मंडल पर ज्योतिर्मयी आमा लहरा रही थी, जिसे देखकर माँ का मनकमल खिल-खिल-सा गया । जन्माभिषेक
परम्परानुसार देवराज इन्द्र, अन्य देवतागण और अप्सराएँ आई, उन्होंने भगवान का जन्मोत्सव मनाया। क्षत्रिय कुण्ड के सभी नर-नारी भी उसमें सम्मिलित थे।
इन्द्र ने अपने पाँच रूप बनाकर प्रभु को अपने हाथों में लिया। माँ त्रिशला के पास उस समय देवकृत प्रतिरूप मात्र था । इन्द्र देवों सहित भगवान को सुमेरू पर ले गया और उनका जन्माभिषेक किया।
इन्द्र ने सोचा-भगवान का कोमल तन कहीं जल-धारा से खेदित न हो जाए। अतः जल-धारा हल्की फुहार-ही हो । इन्द्र के प्रस्तुत विचारों को भगवान ने जाना तो उन्होंने उसको अशंकित करने के लिए वाम अंगुष्ठ को सुमेरु पर दबाया, जिससे सारा सुमेरु काँप उठा।
इन्द्र ने पहले तो यह किसी दुष्टदेव का उपद्रव समझा, किन्तु ज्ञान द्वारा देखने पर उसे अपनी भूल समझ में आ गई।
उसने भगवान को साधारण शिशुओं की तरह समझने की जो भूल की थी, उसकी मन ही मन प्रभु से क्षमायाचना की। नामकरण
जब से शिशु का जन्म हुआ, सिद्धार्थ के वैभव, सत्ता, सुयश और स्वास्थ्य में श्रीवृद्धि होने लगी, अतः शिशु का नाम 'वद्ध मान' रखा गया । बाल-क्रीड़ाएँ
स्वभाव से सौम्य तथा गंभीर होते हुए भी महावीर समवयस्क बच्चों के मनोविनोद के लिए क्रीड़ाएँ कर लिया करते थे।
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