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४६४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
२४. भगवान महावीर
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भगवान पार्श्वनाथ के २५० वर्ष पश्चात् अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी का अभ्युदय हुआ। यह समय ईसा पूर्व छठी शताब्दी में होता है। देशकाल-परिस्थितियाँ
भारत ही नहीं लगभग सम्पूर्ण विश्व में उस समय धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एक अंधेरा सा व्याप्त था।
विश्व का सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व, जो मानव था, वह नैतिक दृष्टि से अपने महत्त्व को लगभग खो चुका था । हिंसा और अधिनायकवाद का जबर्दस्त बोलबाला था। कमजोर वर्ग शक्तिशालियों के चंगुल में था।
ब्राह्मण वर्ग, जो धर्म और नैतिकता का प्रतिनिधित्व करता था, अपने दायित्व को लगभग भूल चुका था । धर्म-अधर्म का पर्यायमात्र था ।
यज्ञों में होने वाली हिंसा धर्म के सर्वोच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित थी। शूद्र और स्त्री समाज को शास्त्रों के अध्ययन की रोक थी। जात्यभिमान चरम सीमा पर था।
ऐसा उस समय भारत में ही नहीं हो रहा था, विश्व के अन्य देशों, भूखंडों में भी उनके परिवेशानुसार कुछ इसी तरह की निकृष्टताएं बन रही थीं, चल रही थीं।
लाओत्से (चीन), पाइथागोरस, सुकरात (यूनान), जरथुस्र (ईरान) आदि विश्व के अन्य क्रान्तिकारी महापुरुषों के अभ्युदय का भी लगभग वही समय था। उनके वहाँ की परिस्थितियां भी कुछ ऐसी ही तमस्पूर्ण थीं।
परिवर्तन प्रकृति का ध्रुव धर्म हैं । दिन के बाद रात तो रात के बाद दिन यह क्रम है। पतन के बाद उत्थान तो ध्वंस के बाद निर्माण अनायास ही होता है।
महावीर के अभ्युदय के समय आर्यावर्त के लोकजीवन का पतनपूर्ण अध्याय चल रहा था और वह लगभग चरम स्थिति पर था। जन्म : एक प्रकाश-पुंज का
भारतीय तत्त्व-चिन्तन में 'आत्मा' अविनाशी तत्त्व है । भगवान महावीर, जिन्होंने पतनोन्मुख भारतीय जीवन को एक चिर सत्य प्रदान कर उसे ऊर्ध्वगामी होने को प्रेरित किया, वे महावीर केवल महावीर-भव की साधना का ही परिणाम नहीं थे, महावीर वाले जीवन से पूर्व अनेकों भव उन्होंने साधना में बिताए । महावीर, देवानन्दा की कुक्षि से अवतरित हुए, उससे पूर्व वे 'प्राणत' नामक दसवें स्वर्ग में देव थे ।
वहाँ से आषाढ़ शुक्ला षष्ठी को च्यवित होकर ब्राह्मण कुण्ड ग्राम के विख्यात विद्वान द्विजश्रेष्ठ श्री ऋषभदत्त की धर्मपत्नी श्री देवानन्दा के गर्भ में जन्मे । उस रात्रि में देवानन्दा ने प्रसिद्ध चौदह स्वप्न देखे ।
जिस रात्रि को भगवान महावीर का देवानन्दा के गर्भ में जन्म हुआ, देवराज इन्द्र ने इस महान घटना को अपने अवधिज्ञान द्वारा जान लिया और चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के अभ्युदय का स्वागत करते हुए अपने सिंहासन से उतरकर उसने प्रभु को नमस्कार किया।
देवराज इन्द्र ने भगवान महावीर को ब्राह्मण कुलोत्पन्न देखकर बड़ा आश्चर्य अनुभव किया। उसका ऐसा विश्वास था कि तीर्थकर वीरोचित कुलों में ही जन्म लिया करते हैं । किन्तु ब्रह्मकुल तो वीरोचित नहीं, ब्रह्मकर्मोचित कुल माना जाता है। महावीर का ब्रह्मकुल में आना इन्द्र के लिए आश्चर्यजनक नहीं, अपितु चिन्तनीय मी था । इन्द्र ने हरिणगमेषी देव का आह्वान किया और देवानन्दा के गर्भ को परिवर्तित करने का आदेश दिया ।
भगवान महावीर श्री देवानन्दा के गर्भ में ८२ दिन-रात रहे। ८३वीं रात्रि में देव ने इन्द्र की आज्ञा के अनुसार महावीर को श्री देवानन्दा के गर्भ से लेकर क्षत्रिय कुण्ड ग्राम के वीर क्षत्रिय श्रेष्ठ सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला की
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