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४६२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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मुझे भी संयम पथ पर चलना है। ज्यों ही भगवान नेमिनाथ ने तीर्थ स्थापना की, राजीमती प्रथम साध्वी बनकर सामने आई।
भारत की आर्याङ्गनाओं के कितने उच्च आदर्श थे। सचमुच ऐसी सन्नारियों के महान उपक्रमों ने ही भारतीय संस्कृति का ताना-बाना बुना, जो हजारों वर्ष चलेगा।
एक बार महासती राजुल गिरिनार पर्वत पर विराजित तीर्थकर महाप्रभु के दर्शनार्थ जा रही थीं । मार्ग में वर्षा होने से एक गुफा में उन्हें ठहरना पड़ा । वहाँ रथनेमि नामक एक साधु ध्यानस्थ था। एकाकी राजुल को वहाँ देख वह उस पर मुग्ध हो गया, उससे भोग-प्रार्थना करने लगा।
महासती राजुल ने अपने अनूठे आत्मज्ञान तथा गम्भीर वैराग्य से इतना प्रभावित किया कि वह अपनी भावनात्मक च्युति पर पश्चात्ताप करने लगा। इतना ही नहीं, वह सदा के लिए अपनी साधना में स्थिर हो गया।
भगवान नेमिनाथ चौदह दिन छह मास छद्मस्थ रहे । संयम के बाद पंद्रहवें दिन उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। कुल एक हजार वर्ष के जीवन में केवल तीन-सौ वर्ष उनका कुमार जीवन चला। ७०० वर्ष संयमी रहे । भगवान नेमि अहिंसा, दया के संस्थापक त्याग के महान् आदर्श तथा भारतीय मुनि परंपरा की मुकुट-मणि हैं । करुणाप्रेरित हो राजुल का परित्याग कर उन्होंने आर्यावर्त को एक नई दिशा दी। हम जितने वहाँ से भटक रहे हैं, उतने ही क्लेशों को निमन्त्रण दे रहे हैं।
भगवान नेमिनाथ के धर्मशासन के कुछ दिव्य रत्न गजसुकुमार
गजसुकुमार श्रीकृष्ण के नन्हे भाई थे । यौवन की देहलीज पर पाँव रखा भी नहीं था कि भगवान नेमिनाथ के दुर्लभ संपर्क से उनमें वैराग्य ज्योति दमकने लगी। दृढ़ वैराग्य था । आखिर आज्ञा मिली । संयम लिया और भिक्षु की प्रतिमा नामक तप की साधना के सन्दर्भ में श्मशान में ध्यान कर बैठे, तभी सोमल नामक ब्राह्मण ने गजसुकुमार मुनि को देखकर पहचान लिया । वह उन्हें देखते ही बड़ा क्रोधित हुआ। बात यह थी कि गजसुकुमार का सम्बन्ध इसकी कन्या सोमा से हो चुका था। सोमल इस बात से रुष्ट था कि इस दुष्ट ने संयम लेकर मेरी कन्या का तिरस्कार कर दिया। मैं इसे जीवित नहीं छोड़ेगा । ऐसा कर निश्चय कर उसने मुनि के सिर पर दहकते अंगारे डाल दिये । अंगारे अच्छी तरह टिकें, इसके लिये उसने सिर पर कुछ गीली मिट्टी से एक घेरा बना दिया।
. अंगारे अच्छी तरह टिक गये। मुनि का सुकोमल सिर उन ज्वाज्वल्यमान अंगारों से सिगड़ी की तरह जल उठा । मुनि देहभाव का त्याग कर चुके थे, आत्मरमण में थे। अनन्त वेदना थी, किन्तु मुनि का ध्यान वेदना से परे था । आत्मलीनता की पराकष्ठा में मुनि को केवलज्ञान प्रकट हो गया और उसी समय मुनि मुक्ति को भी पा गये ।
बड़ा अनोखा चरित्र रहा गजसुकुमार मुनि का, उठे, बढ़े और पहुँच गये अपने स्थान को । ढंढण मुनि
ढंढण मुनि श्रीकृष्ण की ढंढणा राणी के पुत्र थे । प्रभु के सदुपदेश से मुनि बने । पूर्वाजित अन्तराय के उदय से उनको आहार नहीं मिलता था, यदि उनके साथ कोई होता तो उस मुनि को भी आहार-प्राप्ति नहीं होती।
__ यह स्थिति देख ढंढण मुनि ने प्रतिज्ञा की। मुझे केवल मेरे प्रभाव (लब्धि) से मिला आहार ही ग्रहण करूंगा, अन्यथा त्याग । ऐसी प्रतिज्ञा से मुनि के तप होने लगे।
___एक दिन श्रीकृष्ण ने मध्य बाजार में मुनि को वन्दन किया । एक व्यक्ति ने देखा, मुनि बड़े प्रभावशाली हैं, श्रीकृष्ण भी झुकते हैं, उसने साग्रह निवेदन कर लड्डू बहराए । मुनि ने समझा-यह तो मेरे प्रभाव के ही, किन्तु स्थान पर भगवान ने बताया कि ये श्रीकृष्ण के बन्दन-प्रभाव से मिले, तो ढंढण मुनि उन्हें एकान्त में परठने गये । वहीं भावों की श्रेष्ठता से उन्हें केवलज्ञान हुआ। थावच्चा पुत्र
एक हजार पुरुषों सहित थावच्चा पुत्र ने भगवान नेमिनाथ के पास संयम ग्रहण किया। इन्होंने शुक आदि
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