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________________ जैन परम्परा : एक ऐतिहासिक यात्रा | ४६१ राजकुमार नेमि की अध्यात्म दृष्टि को समाप्त करना आसान नहीं था । उनके प्रयत्न सफल नहीं हुए । अन्त में श्रीकृष्ण ने उनका विवाह रच देना ही निश्चित किया । मथुरा के राजा उग्रसेन की राजकुमारी राजीमती को योग्य समझ श्रीकृष्ण ने लग्न निश्चित कर दिये। श्री नेमि के समक्ष श्रीकृष्ण आदि ने विवाह का प्रस्ताव रखा तो श्री नेमि ने अनमने भाव से उनकी बातें सुनीं। उत्तर में मौन रहे तो उन्होंने इसका अर्थ स्वीकृति लिया और ठीक समय पर वरयात्रा की पूर्ण तैयारी कर श्री नेमि को दूल्हा बना रथ पर बिठला दिया । श्री नेमि के निर्विरोध रथ में बैठने की सभी यादव कुल ने बड़ी खुशी मनाई । वे समझ रहे थे, अब श्री नेमि बँध जाएँगे । बरात श्री कृष्ण के द्वारा अपूर्व उल्लास से सजाई बनाई गई थी । अतः उसके वैभव का कहना ही क्या ? मानव तो क्या, देवाङ्गनाएँ भी उस दृश्य को अपलक नेत्रों से देख रहे हैं। कहते हैं, इन्द्र ने पहले ही सोच लिया, यह विवाह होने का नहीं । अतः ब्राह्मण का रूप बनाकर वह श्रीकृष्ण के पास आया और कहने लगा- क्योंजी ! विवाह का यह मुहूर्त्त किसने दिया ? इसमें तो अमङ्गल योग है। श्रीकृष्ण ने सुनते ही ब्राह्मण को अपने पास से भगा दिया । जाते हुए ब्राह्मण ने कहा- "यह शादी हर्गिज नहीं होने की ।" किन्तु उस उल्लास ठाठ में किसी ने उस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया । के बरात बहुत बड़े समारोह के साथ मथुरा पहुँची । स्वागत भी उसी स्तर का हुआ । राजकुमारी राजुल चारों ओर उमंगें लहरा रही थीं। सभी तरफ उल्लास और उत्साह का वातावरण था । नगरनिवासी बरात पर पुष्पवृष्टि कर स्वागत कर रहे थे । श्री नेमिनाथ का रथ मन्थर गति से राजप्रासाद के प्रमुख द्वार की तरफ बढ़ रहा था। तभी श्रीनेमिनाथ की दृष्टि एक बाड़े में बन्द पशुओं की तरफ गई, जो करुण क्रन्दन करते चिल्ला रहे थे । नेमिनाथ ने सारथि से पूछा- ये पशु यहाँ क्यों बन्द हैं ? सारथि ने कहा- आपकी बरात में जो मांसाहारी हैं उन्हें इनका भोजन दिया जाएगा । सुनते ही, नेमिनाथ सन्न रह गये। उनके विचारों में एक नई क्रान्ति आई । सारथि से वे बोले - "मेरा रथ उलटा ले चल !" सारथि ने कहा - नाथ, क्यों ? श्रीनेमि ने कहा- चन्द व्यक्तियों के आमोद-प्रमोद के लिये इतने जीवों का संहार, हत्याकाण्ड, मैं इस पाप को प्रोत्साहन नहीं दे सकता ! न मुझे शादी करनी है, न इन्हें कटवाना है । रथ उलटा चल पड़ा । चारों ओर सनसनी फैल गई । बराती और हजारों नर-नारी दौड़कर सामने आ खड़े हुए । स्वयं राजा उग्रसेन राजकुमार को रोकने खड़े थे । भगवान नेमिनाथ ने कहा- आप सब की आत्मीयता का मैं आदर करता हूँ । किन्तु इस आर्यभूमि को इस मदिरापान और मांसाहार के कलंक ने कलुषित कर दिया है। इसे हटाने के लिए हमें त्याग करना ही होगा । एक व्यक्ति की क्षणिक खुशी के लिये किसी जीव का संपूर्ण विनाश करना, यह घोर अज्ञान और क्रूरता है । मेरे विवाह के निमित्त इकट्ठे किए इन प्राणियों को मैं अभय देता हूँ, ऐसा कह नेमिनाथ बाड़े के निकट आये और उसके द्वार को खोल दिया । उग्रसेन को धैर्य देते हुए नेमिनाथ ने कहा- आपकी बालिका कुमारिका है। उसका विवाह किसी अन्य से हो सकता है । मैं विवाह का अभिलाषी नहीं हूँ, मैं तो पहले से ही उपरत हूँ। यह कहकर श्री नेमिनाथ द्वारका चले आये और वर्षीदान देकर उन्होंने संयम स्वीकार कर लिया । राजकुमारी राजुल, जिसने भाव के स्तर पर श्रीनेमि को अपना पति स्वीकार कर लिया था, श्रीनेमिनाथ के इस तरह चले जाने से बड़ा झटका खा गई। पहले तो अत्यधिक शोक ने उसे विलाप के सरोवर में डुबो दिया, किन्तु ज्यों ही श्रीनेमिनाथ के अपूर्व त्याग का उसे स्मरण हो आया, उसने अपने में एक नयी स्फूर्ति अनुभव की । जो विकल विरहिणी बनकर तड़प रही थी, अब सिंहिनी के समान बड़े शौर्य के साथ खड़ी हो गई । पिता किसी अन्य सुयोग्य वर की तलाश में थे । किन्तु राजुल ने स्पष्ट घोषणा कर दी- " जो पति की राह, वही पत्नी की ।" www prhi *. 000000000000 000000000000 1000%
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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