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४७४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ
योग- कल्पनाएँ और द्वितीय में निदान चिकित्सा का वर्णन है । 'कविप्रमोद' (वि०सं० १७४६ ) में नौ अध्यायों में संग्रहात्मक चिकित्सा का वर्णन है।
जोगीदास - यह बीकानेर- निवासी थे। इनका अन्य नाम 'दास' कवि प्रसिद्ध है। बीकानेर के तत्कालीन महाराजा जोरावरसिंह की आज्ञा से इन्होंने सं० १७६२ में 'वैद्यकसार' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
समरथ - यह श्वेताम्बर खरतरगच्छीय मतिरत्न के शिष्य थे । इन्होंने शालिनाथ- प्रणीत संस्कृत को 'रसमंजरी' की पद्यमय भाषा टीका सं० १७६४ में की थी। यह रसशास्त्र विषयक ग्रंथ है ।
चैन सुखयति - यह फतहपुर (सीकर) के निवासी थे। इनके वैद्यक पर दो ग्रन्थ मिलते हैं - १ बोपदेवकृत 'शतश्लोकी' की राजस्थानी गद्य में भाषा टीका (वि.सं. १८२०) तथा २ लोलिंबराजकृत वैद्यजीवन की राजस्थानी में टीका 'वैद्यजीवन टवा' ।
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मलूकचन्द - यह बीकानेर के जैन श्रावक थे। इनने यूनानी चिकित्साशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ 'तिब्ब सहाबी' का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया है ।
विश्राम - यह आगम गच्छ के यति थे। इनका निवास स्थान अर्जुनपुर (अंजार, कच्छ ) था । इनके दो अन्य मिलते है - अनुपानमंजरी' (वि. सं. १८४२) तथा व्यामिनि (वि. सं. १८३९) प्रथम ग्रन्थ में विष-उपविष आदि के शोधन, मारण, विषनाशनोपाय और अनुपानों का तथा द्वितीय ग्रंथ में रोगों की संक्षिप्त चिकित्सा का वर्णन है । लक्ष्मीचन्द – इनका वि.सं. १६३७ में रचित 'लक्ष्मी प्रकाश' नामक रोगों के निदान और चिकित्सा
संबंधी ग्रन्थ मिलता है ।
इन जैन ग्रन्थकारों और ग्रन्थों के अतिरिक्त सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ जैन ग्रन्थ-भंडारों में अप्रकाशित व अज्ञात रूप में भरे पड़े हैं । पादलिप्ताचार्य और उनके शिष्य नागार्जुन (जो ई. प्रथमशती में हो चुके हैं) का वर्णन मी जैन ग्रन्थों में मिलता है । वे रस विद्या और रसायन चिकित्सा के प्रसिद्ध विद्वान थे। पंजाब में मेघमुनि ने वि.सं. १८१८ में 'मेघविनोद' नाम का चिकित्सा संबंधी ग्रन्थ और गंगाराम यति ने वि.सं. १८७८ में 'गंगयतिनिदान' नामक रोगनिदान संबंधी ग्रन्थों का प्रणयन किया था ।
उपर्युक्त परम्पराओं से भिन्न ही जैन विद्वानों की परम्परा दक्षिणी भारत में, विशेषतः कन्नड़ प्रांत में उपलब्ध होती है | कर्नाटक में समंतभद्र ( ई. ३-४ थी शती) और पूज्यपाद (ई. ५वीं शती) ने प्राचीन वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी । वे ग्रन्थ अब नहीं मिलते। उनके संदर्भ उप्रादित्याचार्य के 'कल्याणकारक' में प्रचुर मात्रा में प्राप्त हैं । 'कल्याणकारक' की रचना आचार्य उग्रादित्य ने दक्षिण के राष्ट्रकूट वंशीय सम्राट नृपतुंग अमोघवर्ष प्रथम ( ई. ८१५ से ८७७ ) के शासनकाल में समाप्त की थी । इस ग्रन्थ के अंत में परिशिष्टाध्याय के रूप में मांसभक्षणनिषेध का गद्य में विस्तृत विवेचन है, जिसे उग्रादित्य ने अनेक विद्वानों और वैद्यों की उपस्थिति में नृपतुंग राजा अमोघवर्ष की राजसभा में प्रस्तुत किया था । अमोघवर्ष की सभा में आने से पूर्व उग्रादित्य और उनके गुरु श्रीनन्दि का निवास पूर्वी चालुक्य राजा विष्णुवर्धन चतुर्थ (ई. ७६४-७६६ ) के संरक्षण में उनके ही राज्य के अन्तर्गत विजागापट्टम जिले की रामतीर्थ या रामकोंड नामक पहाड़ियों की कंदराओं में था । उस समय यह स्थान वेंग प्रदेश का उत्तम सांस्कृतिक केन्द्र था । यहीं पर श्रीनंदि से उग्रादित्य ने 'प्राणावाय' की शिक्षा प्राप्त कर कल्याणकारक ग्रंथ की रचना की थी। बाद में इस प्रदेश को अमोघवर्ष प्रथम द्वारा जीत लिये जाने पर इन्हें भी अमोघ - वर्ष की राजसभा में आना पड़ा। यहाँ पर उन्होंने कल्याणकारक में नवीन अध्याय जोड़कर ग्रन्थ को संपूर्ण किया । इस प्रकार उग्रादित्य का काल ई. ८वीं शती का अंतिम और हवीं शती का प्रारंभिक चरण प्रमाणित होता है । कल्याण कारक में मद्य, मांस, आसव, प्राणिज द्रव्य आदि का प्रयोग नहीं बताया गया है। सभी योग, वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों से निर्मित हुए हैं । रसयोगों का बाहुल्य इसी ग्रंथ में सर्वप्रथम मिलता है । उग्रादित्य के बाद भी कर्नाटक में अनेक वैद्यकग्रन्थ निर्मित होते रहे। विजयनगर साम्राज्य के अभ्युदयकाल में सर्वाधिक वैद्यक ग्रन्थ लिखे गये ।
प्रारंभिक विजयनगर-काल में राजा हरिहरराज के समय में मंगराज प्रथम नामक कानडी कवि ने वि.सं. १४१६ (१३६० ई.) में 'खगेन्द्रमणिदर्पण' नामक ग्रंथ की रचना की थी। इसमें स्थावरविषों की क्रिया और उनकी चिकित्सा वर्णन है । श्रीधरदेव ( १५०० ई.) ने 'वैद्यामृत' की रचना की थी। इसमें २४ अधिकार हैं ।
एतस्
ॐ
TU PINJE & PASULAIOSBONY
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