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जैन आयुर्वेद साहित्य : एक समीक्षा | ४७३
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संग्रह' नामक चिकित्सा सम्बन्धी योगों का संग्रह ग्रन्थ बनाया था। ज्यूलियस जॉली ने इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० १६६८ या १६६६ माना है ।२६ इसका रचनाकाल इससे भी पूर्वका होना चाहिए। मैंने रा० प्रा०वि० प्र० जोधपुर में इस ग्रन्थ की सं० १६६६ की ह० लि. प्रति देखी है। इस ग्रन्थ में फिरंग, कबाब चीनी, अहीफेन और पारद का उल्लेख है। इसमें पाक, चूर्ण, गुटिका, क्वाय, घृत, तैल और मिश्रक सात अध्याय हैं।
लक्ष्मी कुशल-यह तपागच्छीय विमलसोमसूरि के परिवार में जयकुल के शिष्य थे। इन्होंने संवत् १६६४ में ईडर (गुजरात) के समीप ओड़ा नामक ग्राम में 'वैद्यकसार रत्नप्रकाश' नामक आयुर्वेदीय ग्रन्थ की गुजराती चौपाइयों में रचना की थी।
हस्तिरुचि गणि-इनका 'वैद्यवल्लभ' नामक ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है। इसका रचनाकाल ई० सन् १६७० है । यह योगसंग्रह व चिकित्सा पर है । गोंडल के इतिहास में हस्तिरुचि के स्थान पर हस्तिसूरि नाम दिया है । मोहनलाल दलीचंद देसाई ने 'जैन साहित्यनो इतिहास' (पृ. ६६४) में इनका ग्रन्थ रचनाकाल सं. १७१७ से १७३६ तक माना है। इसमें आठ अध्याय हैं। यह चिकित्सा संबंधी संग्रह ग्रन्थ है। सं. १७२६ में मेघ भद्र ने वैद्यवल्लभ पर संस्कृत में टीका लिखी थी।
पीतांबर-इन्होंने सं. १७५६ में उदयपुर में “आयुर्वेदसार संग्रह" नामक भाषा-ग्रन्थ रचा था ।
हंसराज-यह १७वीं शती में विद्यमान थे । इनका 'हंसराज निदान' (अपरनाम “भिषक्चक्रचित्तोत्सव') नामक निदान विषयक ग्रन्थ है ।
जिनसमुद्रसूरि-इनका काल वि.सं. १६७० से १७४१ तक माना जाता है। राजस्थानी भाषा में इनका 'वैद्यचिंतामणि' या 'वैद्यकसारोद्धार' नामक पद्यमय ग्रंथ मिलता है। इसमें रोगों का निदान और चिकित्सा का । वर्णन है।
महेन्द्र जैन-यह कृष्णवैद्य के पुत्र थे। इन्होंने वि. सं. १७०६ में पंचन्तरि निघंटु के आधार पर उदयपुर में 'द्रव्यावलीसमुच्चय ग्रन्थ की रचना की थी। यह द्रव्यशास्त्र संबंधी ग्रंथ है ।
नयनशेखर-यह अंचलगच्छीय पालीताणा शाखा के मुनि थे तथा गुजरात के निवासी थे । इन्होंने सं. १७३६ में गुजराती भाषा में 'योगरत्नाकर चौपाई' नामक चिकित्सा ग्रन्थ लिखा था।
विनयमेरुगणी-यह खरतरगच्छीय जिनचंद की परम्परा में सुमतिमेरु के भ्रातृ पाठक थे । इनका काल १८वीं शती प्रमाणित होता है। इनके ग्रन्थ 'विद्वन्मुखमंडनसारसंग्रह' की एक अपूर्ण प्रति (मस्तक रोगाधिकार तक) रा.प्रा. वि. प्र. जोधपुर में विद्यमान है ।
रामलाल महोपाध्याय-यह बीकानेर के निवासी तथा धर्मशील के शिष्य थे । इनका 'रामनिदानम्' या 'राम ऋद्धिसार' नामक ग्रन्थ प्राप्त है । इसमें संक्षिप्तरूप से ७१२ श्लोकों में सब रोगों का निदान वणित है।
दीपकचन्द्र वाचक-यह खरतरगच्छीय वाचक मुनि थे। इनको जयपुर में महाराजा जयसिंह का राज्याश्रय प्राप्त था। इनके दो ग्रन्थ मिलते हैं-संस्कृत में 'पथ्यलंघननिर्णय' (लंघनपथ्यनिर्णय, पथ्यापथ्यनिर्णय, लंघनपथ्यविचार) और राजस्थानी में 'बालतंत्रभाषावचनिका'। प्रथम ग्रन्थ में रोगों के पथ्य और अपथ्य तथा द्वितीय में बालतंत्र की राजस्थानी में टीका है । पथ्यलंघन निर्णय का रचनाकाल सं. १७९२ है।
रामचन्द्र-यह खरतरगच्छीय पद्मरंग के शिष्य थे। इनके राजस्थानी में वैद्यक पर दो ग्रन्थ 'रामविनोद' (वि. सं. १७२०) और 'वैद्यविनोद' (वि. सं. १७२६) तथा ज्योतिष पर 'सामुद्रिकभाषा' नामक ग्रन्थ मिलते हैं।
धर्मसी-इन्होंने सं० १७४० में 'डंभक्रिया' नामक दाहकर्म चिकित्सा पर २१ पद्यों में राजस्थानी में छोटीसी कृति लिखी थी। . लक्ष्मीवल्लभ-यह खरतरगच्छीय शाखा के उपाध्याय लक्ष्मीकीति के शिष्य थे। इन्होंने संस्कृत के 'काल ज्ञानम्' (शंभुनाथ कृत) का राजस्थानी में पद्यानुवाद किया था। इसका रचनाकाल सं० १७४१ है । लेखक की अन्य कृति 'मूत्रपरीक्षा' नामक राजस्थानी में मिलती है।
मानमुनि (मुनिमान)-यह खरतरगच्छीय भट्टारक जिनचंद के शिष्य वाचक सुमति सुमेरू के शिष्य थे। वैद्यक पर इनकी दो रचनाएं मिलती हैं-कविविनोद और कविप्रमोद । 'कविविनोद' (वि०सं० १७४५) प्रथम खंड में
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