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जैन आगम और प्राकृत भाषा विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में एक परिशीलन | ४३१ इसका नेतृत्व श्री नागार्जुन सूरि ने किया। अतः इसे नागार्जुनी वाचना कहा जाता है । वलभी में होने से प्रथम वलभीवाचना भी कहा जाता है ।
माथुरी और नागार्जुनी पावना में आगम-सूत्रों का पृथक्-पृथक् संकलन हुआ। परस्पर कहीं-कहीं पाठ-भेद भी रह गया । संयोग ऐसा बना कि वाचना के पश्चात् आर्य स्कन्दिल और नागार्जुन सूरि का परस्पर मिलन नहीं हो सका। इसलिए वाचना-भेद जैसा था, बना रह गया ।
तृतीय या अन्तिम वाचना
भगवान महावीर के निर्वाण के १८० वर्ष बाद या कइयों के मत में ६६३ वर्ष के अनन्तर तदनुसार ईसवी सन् ४५३ या ४६६ में वलभी में एक साधु-सम्मेलन का आयोजन हुआ। इसके अधिनेता देवद्धिगणी क्षमाश्रमण थे । आगम व्यवस्थित रूप से पुनः संकलित कर लिपिबद्ध किये जाएँ, यह सम्मेलन का उद्देश्य था । क्योंकि लोगों की स्मृति पहले जितनी नहीं रह गई थी। इसलिए भय होता जा रहा था कि यदि स्मृति के सहारे रहा जायेगा तो शायद हम परम्परा प्राप्त श्रुत खो बैठेंगे ।
इसे तृतीय या अन्तिम वाचना और वलभी की द्वितीय वाचना कहा जाता है। आगमों का संकलन हुआ । वे लिपिबद्ध किये गये । वही संकलन श्वेताम्बर जैन आगमों के रूप में आज प्राप्त है ।
दिगम्बर- मान्यता
दिगम्बर जैन श्रुतांगों के नाम आदि तो प्रायः श्वेताम्बरों के समान ही मानते हैं। पर उनके अनुसार आगमश्रुत का सर्वथा विच्छेद हो गया । दिगम्बरों द्वारा षट्खण्डागम-साहित्य आगम-श्रुत की तरह ही समादृत है । षट्खण्डागम की रचना आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त द्वारा की गई, जिनका समय ईसा की प्रथम द्वितीय शती के आस-पास माना जाता है ।
षट्खण्डागम की भाषा शौरसेनी प्राकृत है, इसे जैन शौरसेनी कहा जाता है क्योंकि इस पर अर्द्धमागधी की छाप है । दिगम्बर आचार्यों द्वारा और भी जो धार्मिक साहित्य रचा गया, वह (जैसे आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचन सार, पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थ तथा इसी तरह अन्यान्य आचार्यों की कृतियाँ प्रायः इसी (शौरसेनी प्राकृत ) में है । ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर भारत में शूरसेन प्रदेश दिगम्बर जैनों का मुख्य केन्द्र रहा था अतः वहीं की प्राकृत को दिगम्बर आचार्यों व लेखकों ने धार्मिक भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया। इसी का यह परिणाम था कि -भाषा-परिवार के क्षेत्र दक्षिण देश के दिगम्बर-आचायों ने भी धार्मिक ग्रन्थों की रचना शौरसेनी में ही की, जबकि उनकी मातृभाषाएं तमिल, कन्नड़ या तेलगू आदि थी। शौरसेनी के साथ कुछ धार्मिक पावित्र्य का भाव जुड़ गया था । महान् लेखक आचार्य कुन्दकुन्द, जिन्हें दिगम्बर- परम्परा में श्रद्धास्पदता की कोटि में आर्य जम्बू के बाद सर्वातिशायी गिना जाता है, वे (तमिल देशोत्पन्न) दाक्षिणात्य ही थे ।
आगम : रूप : भाषा प्रामाणिकता
प्रश्न उठना स्वाभाविक है, २५०० वर्ष पूर्व जो श्रुत अस्तित्व में आया, अन्ततः लगभग एक सहस्र वर्ष पश्चात् जिसका संकलन हुआ और लेखन मी; उद्भव और लेखन की मध्यवर्ती अवधि में आगमन त में क्या कुछ भी परिवर्तन नहीं आया, भगवान महावीर के अनन्तर जैन-धर्म केवल बिहार या उसके आस-पास के क्षेत्रों में ही नहीं रहा, वह भारत के दूर-दूर के प्रदेशों में फैलता गया, जहाँ प्रचलित भाषाएँ भिन्न थीं। इसके अतिरिक्त अनेक भिन्न-भिन्न प्रदेशों के लोग श्रमण-धर्म में प्रव्रजित हुए, जिनकी मातृभाषाएँ भिन्न-भिन्न थीं, फिर यह कैसे संभव है कि उनके माध्यम से आगे बढ़ता आगमिक वाक्प्रवाह उसी रूप में स्थिर रह सका, जैसा भगवान महावीर के समय में था । किसी अपेक्षा से बात तो ठीक है, कोई भी भाषा शास्त्रीय विद्वान् यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि आगमों का आज ठीक अक्षरशः वही रूप है, जो उनके उद्भव काल में था । पर यह तथ्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि शब्द प्रामाण्य में सर्वाधिक आस्था और अभिरुचि होने के कारण इस ओर सभी श्रमणों का प्रबल झुकाव रहा कि आगमिक शब्दावली में जरा भी परिवर्तन न हो ।
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