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________________ १६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन प्रन्थ ०००००००००००० MEDIAS CD DI JITAIN SA RASA परीषो तो दीदो अति गणो पारणो कोदो लावे लाय जी। श्री रोड़जी स्वामी में गुण गाणां । पाठक इससे समझ सकते हैं कि आमेट में कैसा वातावरण था ! जब आमेट संघ चातुर्मास के लिये आया तो कई हितचिन्तक विरोधों की आशंका से चातुर्मास के लिये असहमत थे, किन्तु गुरुदेव ने स्वीकृति दी। कहना होगा कि प्रस्तुत चातुर्मास में आशंकाएँ ही व्यर्थ सिद्ध नहीं हुई, अपितु साम्प्रदायिक सौहार्द का एक नया वातावरण बना। स्थानीय अजैन समाज ने भी इस चातुर्मास को बड़ी भक्तिभावना के साथ लिया। जैनशाला स्थापना, पुस्तकालय स्थापना जैसे रचनात्मक कार्यों के साथ चातुर्मास बड़ा सफल सम्पन्न हुआ। चातुर्मास के अन्तिम मास-कार्तिक-में ही सनवाड़ संघ चातुर्मास की विनती लेकर उपस्थित हो गया और यथासमय उसे स्वीकृति भी मिल गई। भेद मिटते ही गये बनास नदी के किनारे बसा पहुंना एक सुन्दर क्षेत्र है। एक मकान को लेकर बोहरा परिवार में समाज के बीच विवाद खड़ा हो गया। विवाद पहुना तक ही नहीं रहा, १०० क्षेत्रों तक व्याप्त हो गया। सम्बन्ध-विच्छेद की स्थिति चल रही थी। इस स्थिति को तीन वर्ष हो गये थे। बड़ा घुटनपूर्ण वातावरण था। गुरुदेव श्री का चातुर्मास उठते ही उधर ध्यान गया और उभय-पक्ष के आग्रह से गुरुदेव पहुँना पधारे। लगभग २० दिन ठहरकर प्रस्तुत विवाद की कई उलझनों को सुलझाने में अपना अमूल्य सान्निध्य प्रदान किया। फलतः सारा विवाद न्यायोचित तरीके से सुलझाकर एकता स्थापित हो गई। जासमा में भी कई वर्षों का विवाद था। इसी तरह गिलुंड में भी तड़ थी। आकोला में भी भेद चल रहा था । गुरुदेव श्री के पुण्य प्रताप और इनका पवित्र सान्निध्य पाकर सारे विवाद मिटकर सर्वत्र प्रेम की गंगा बहने लगी। यह चातुर्मास सनवाड़ हुआ। विरोध का सामना विनोद से लगभग विगत एक सदी से साम्प्रदायिकता के विष ने स्थानकवासी जैन समाज को बड़ी कठिन स्थिति में डाल रखा है। दुःख की बात तो यह है कि ज्यों-ज्यों साम्प्रदायिकता का विरोध होता जा रहा है, त्यों-त्यों यह विकराल रूप लिए बढ़ती जा रही है । साम्प्रदायिकता का परिचायक मूल लक्षण यह है कि अपने मान्य साधुओं के दोषों को ढंकना तथा जो अपने लिये अमान्य साधु हैं उनमें यदि कोई दोष हैं तो उसकी घोषणाएँ करते फिरना और यदि उनमें कोई दोष नहीं हों तो उन पर दोषारोपण कर उन्हें जलील करने की साजिश करना । सम्प्रदाय के पक्ष में यह बात स्वीकार करते हैं कि इनका अस्तित्व पिछली कई सदियों से था, किन्तु साथ ही यह भी मानना होगा कि ऐसा रागद्वेष उन विगत कई सदियों में हगिज नहीं था। प्रायः सभी तरफ के साधु विभिन्न साम्प्रदायिक क्षेत्रों में विचरा भी करते थे और वर्षावास भी किया करते थे, किन्तु अपना पक्ष बनाने की तुच्छ लालसा प्रायः उनमें नहीं थी । साम्प्रदायिक सौहार्द का एक सुन्दर वातावरण व्याप्त था तब, किन्तु अब वैसी स्थिति नहीं रही। प्रायः देखने में आता है कि परम्परागत किसी अन्य क्षेत्र में चातुर्मास का अवसर मिलते ही प्राय: स्वाग्रही साधु अपनी ऊँचाई तथा अन्य की बुराई करने में लग जाते हैं। गहराई तक श्रम करने के कारण प्रायः कुछ तत्त्व साथ हो ही जाया करते हैं । फलतः क्षेत्र की शान्ति भंग हो जाती है। एक ही क्षेत्र में कई पक्ष खड़े होकर टकराने लगते हैं। सम्प्रदायों के साथ साधुओं का बँटवारा कर लिया जाता है । फूटफजीती का साम्राज्य छा जाया करता है तीव्र साम्प्रदायिकता की इस बीमारी से कई क्षेत्र कराह रहे हैं, किन्तु कोई उपचार करना नहीं चाहता। ENA 2 GuawedAAR 9886. Jan Education international For Private & Personal use only www.jainelibrary.org - -
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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