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मुनिश्री रूपचन्द्र 'रजत'
[घोर तपस्वी]
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ज्ञान और अनुभव का आलोक स्तम्भ है--उपाध्याय । उपाध्याय पद की गरिमा, उपयोगिता और उसकी विशिष्ट भूमिका का जैन परम्परागत एक सर्वांगीण प्रवलोकन यहाँ प्रस्तुत किया गया है।
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जैन परम्परा में उपाध्याय पद
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क्रिया और ज्ञान
प्रत्येक धर्म का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है। निर्वाण प्राप्त करना प्रत्येक धर्म-आराधक का लक्ष्य है। अतः कहा है
निव्वाण सेट्ठा जह सव्वधम्मा' सब धर्मों में निर्वाण को श्रेष्ठ माना है। निर्वाण प्राप्ति के साधन या मार्ग की मीमांसा विभिन्न धर्मों में विभिन्न प्रकार से की गई है । कोई धर्म सिर्फ ज्ञान से ही मुक्ति मानते हैं—“सुयंसेयं"२ श्रुत ही श्रेय है, ज्ञान से ही मुक्ति मिलती है, और कुछ धर्म वाले "शीलं सेयं" शील आचार ही श्रेय है। इस प्रकार एकांत ज्ञान और एकान्त आचार की प्ररूपणा करते हैं । किन्तु जैन धर्म, ज्ञान और क्रिया का रूप स्वीकार करता है। उसका स्पष्ट मत है -
आहंसु विज्जा चरण पमोक्खो विद्या-ज्ञान और चरण-क्रिया के मिलन से ही मुक्ति होती है। न अकेला ज्ञान मुक्ति प्रदाता है और न अकेला आचार । जैन साधक ज्ञान की आराधना करता है और आचार की भी। आचार मलक ज्ञान से ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। सद्ज्ञान पूर्वक किया गया आचरण ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है । इस कारण जैन शास्त्रों में ज्ञान और आचार पर समान रूप से बल दिया गया है।
हाँ, यह बात जरूर ध्यान में रखने की है कि ज्ञान प्राप्त करने से पूर्व आचार की शुद्धि अवश्य होनी चाहिए जिसका आचार शुद्ध होता है वही सद्ज्ञान प्राप्त कर सकता है। मनुस्मृति में भी यही बात कही गई है
आचाराद् विच्युतो विप्रः न वेद फलमश्नुते । आचार से भ्रष्ट हुआ ब्राह्मण वेद ज्ञान का फल प्राप्त नहीं कर सकता। आचार्य भद्रबाहु से जब पूछा गया कि अंग शास्त्र जो कि ज्ञान के अक्षय भंडार हैं, उनका सार क्या है ?
अंगाणं कि सारो ? [अंगों का सार क्या है ?] आयारो! [आचार, अंग का सार है]
दूसरा भाव है-ज्ञान का सार आचार है, इसलिए ज्ञान प्राप्ति वही कर सकता है जो सदाचारी होगा। भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में कहा है
अह पंचर्हि ठाणेहिं जेहि सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं रोगेणालस्स एण वा ॥
-उत्त०१०३ जो व्यक्ति क्रोधी, अहंकारी, प्रमादी, रोगी और आलसी है । वह ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है । आचार की विशेषता रखने के लिए ही जैन संघ में पहले आचार्य और फिर उपाध्याय का स्थान बताया
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