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________________ संलेखना : एक श्रेष्ठ मृत्युकला | ४०६ 000000000000 ०००००००००००० 438 पाण्यान BRARIYAR SigP ... (६) तरुपडण-वृक्ष आदि से गिरकर मरना । । (७) जलप्पवंस-जल में डूबकर मरना । (८) जलणप्पवंस--ज्वलन, अर्थात् अग्नि में गिरकर मरना । (९) विसभक्खण--जहर आदि मारक पदार्थ खाकर प्राण त्यागना । (१०) सत्थोवाडण-छुरी, तलवार आदि शस्त्र द्वारा प्राण वियोजन होना या करना । (११) विहाणस--गले में फांसी लगाकर, वृक्ष आदि की डाल पर लटककर मृत्यु प्राप्त करना । (१२) गिद्ध पविट्टमरण--गृध्र, शृगाल आदि मांसलोलुप जंगली जानवरों द्वारा शरीर का विदारण होना । यह बारह प्रकार का बाल मरण है। क्रोध आदि कषाय, भय, वासना तथा निराशा आदि से प्रताड़ित होकर प्राणी जीवन को समाप्त करने पर उतारू हो जाता है। उसमें विवेक ज्ञान की ज्योति लुप्त हो जाती है। हीन भावनाएँ प्रबल रहती है, जिनके आवेश में वह शरीर का नाश कर बैठता है । बाल-मरण प्राप्त करने वाला जीव बार-बार जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है। बाल-मरण एक प्रकार से जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण समाप्ति है । अमूल्य जिन्दगी को कौड़ियों के मोल खो देने वाला सौदा है। इसमें प्राणी की मोक्ष कामना सफल नहीं हो पाती, इसीलिए इसे अकाम मरण कहा है । सकाम-मरण के भी दो भेद किये गए हैं(१) पंडित मरण, (२) बाल-पंडित मरण । आचार्यों ने बताया है-- अविरय मरणं बाल मरणं विरयाण पंडियं विति । जाणाहि बाल पंडिय-मरणं पूण देसविरयाणं ॥१४ -विषय-वासना में आसक्त अविरत जीवों का मरण 'बाल-मरण' है । विषय-विरक्त संयमी जीवों का मरण 'बाल-पंडित मरण' है । स्थानांग सूत्र१५ में तीनों ही प्रकार के मरण के तीन-तीन भेद भी बताये हैं, जिनमें उनकी लेश्याओं की क्रमिक शुद्धि-अशुद्धि को लक्ष्य कर जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट स्थिति दर्शायी गई है। पंडित मरण और बाल पंडित मरण में मुख्यतः पात्र का भेद है । वैसे तो दोनों ही जीवन की अन्तिम स्थिति में समाधिपूर्वक प्राण त्याग करते हैं, किन्तु 'साधु का पंडित मरण' कहलाता है। जबकि श्रावक का 'बाल-पंडित मरण' इसलिए बाल पंडित मरण का वर्णन स्वतन्त्र रूप से नहीं किया गया है। किन्तु पंडित मरण में ही इसका अंतर्भाव किया गया है। स्थानांग१६ में ही दो प्रकार के प्रशस्त मरण का वर्णन किया है-जहाँ 'पादपोपगमन मरण' और 'भक्त प्रत्याख्यान मरण'-ये दो भेद बताये हैं। भगवती सूत्र में भी स्कन्दक के सामने इन्हीं दो प्रकार के पंडित मरण की व्याख्या की गई है। किन्तु उत्तराध्ययन की प्राकृत टीका में पंडित मरण के तीन भेद और पाँच भेद बताये हैं । तीन भेद हैं -भत्त परिणा, इगिणि पाओव गमं च तिण्णि मरणाई।१० अर्थात्-(१) भक्त परिज्ञा मरण, (२) इंगिणि मरण, (३) पादोपगमन मरण । इसी टीका में चौथा छद्मस्थ मरण और पांचवां केवलि मरण ये दो भेद और कर पाँच भेद भी बताये गए हैं। पंडित मरण-वास्तव में मरण की कला है। साधक मृत्यु को मित्र मान कर उसके स्वागत की तैयारी करता हुआ अपने जीवन की समीक्षा करता है, अपने आचरण पर स्वयं टिप्पणी लिखता है । एक प्रकार से स्वयं को स्वयं के आइने में देखता है। भूलों पर पश्चात्ताप और आलोचना कर आत्म-विशुद्धि करता है। मन को प्रसन्न और उल्लासमय बनाता है तथा भावी जीवन के प्रति भी अनासक्त होकर निर्भयतापूर्वक मरण का वरण करता है। ज्ञानी व्यक्ति के उदात्त चिन्तन की एक झलक प्राचीन आचार्यों ने स्पष्ट की है धीरेणऽवि मरियव्वं कापुरसेणावि अवस्स मरियव्वं । तम्हा अवस्स मरणे, वरं खू धीरत्तेण मरिउं ।।१८ ल . Odian ilamtamanadhd
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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