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________________ ३९८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० भगवत्-नाम-स्मरण, तद्गुणकीर्तन तथा सेवा-भाव का यहाँ स्पष्ट निर्देश है, जो सिक्ख-धर्म के विचारात्मक तथा आचारात्मक पक्ष की मूल भित्ति है। जरथुश्त्र-पारसी धर्म के लोग ईरान से लगभग बारह शताब्दी पूर्व भारत में आये। उनका भारत-आगमन जहाँ एक ओर व्यावसायिक दृष्टि से था, वहाँ दूसरी ओर अरब द्वारा होने वाले धार्मिक आक्रमणों से बचने के हेतु भी था। ऋग्वेदकालीन वैदिक धर्म की छाप इस धर्म पर है । इस धर्म में, जिस रूप में आज यह प्राप्त है, संन्यासी और गृही के रूप में वर्ग-भेद नहीं है । धार्मिक पूजा-उपासना में मार्ग-दर्शन करने वाला पुरोहित-वर्ग अवश्य है, जिसमें गृहस्थ होते हैं । इनकी हम वैदिक धर्म के ब्राह्मण-पुरोहितों से तुलना कर सकते हैं। पारसी-धर्म में एक धर्माराधक मानव के जो कर्तव्य बतलाये गये हैं, वे निम्नांकित हैं : "सबसे प्रेम करे। सबकी सेवा करे। ईश्वर की पूजा-उपासना करे। देवताओं और सन्तों का आदर करे। सभी सत्कर्मों में मदद करे। उनमें हाथ बँटाये । सभी भले पशुओं की रक्षा करे। उन पर दया करे । दान दे । सब पर करुणा करे । न्याय पर चले । श्रम करे । अपने पैरों पर खड़ा हो। असत् से सदा दूर रहे। बुराइयों को नष्ट करे । ईश्वर पर विश्वास रखकर सत् का सदा समर्थन करते रहने से मनुष्य अपना कर्तव्य पूरा कर सकता है ।"१२ इस्लाम धर्म में जो विचार और आचार-क्रम स्वीकृत है, उनके अनुसार शुरू से ही संन्यासी और गृहस्थ जैसा भेद नहीं है । इसके प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब स्वयं एक गृहस्थ थे। उनके उत्तराधिकारी खलीफा जहाँ धर्म-नायक थे, वहाँ शासक भी थे। वे भी गृहस्थ ही थे। इस्लाम धर्म में अपने हर अनुयायी या मुसलमान के लिए चार इबादतें आवश्यक बतलाई गई हैं, जो इस प्रकार हैं : १. हर रोज फज, जुहर, अस्र, मगरिब और इंशा-इन पाँच वक्तों पर नमाज कायम करे । २. रमजान के महीने भर रोजा रखे। ३. अल्लाह की राह में कम से कम ढाई फीसदी खैरात करे, जकात दे।। ४. हो सके तो जिन्दगी में एक दफा हज करे, मक्का, खान ए काबा की जियारत करे।"१३ आचार-व्यवहार की दृष्टि से सत्य बोलना, मधुर बोलना, किसी को निन्दा नहीं करना, अभिमान नहीं करना, परिश्रम की कमाई खाना, ईमानदारी बरतना, चुगली, चापलूसी नहीं करना, शराब नहीं पीना, ब्याज नहीं लेना, व्यभिचार नहीं करना, कंजूसी नहीं करना, किसी का धन नहीं हड़पना आदि के रूप में अनुयायियों को अनेक शिक्षाएँ दी MTIHL Bara AUTITION S MITRA कहने का अभिप्राय यह है कि समाज-संगठन, गृहस्थ-जीवन के सुव्यवस्थित निर्वाह, सामाजिक भाव आदि की दृष्टि से इस्लाम में ये महत्त्वपूर्ण बातें अवश्य हैं, आध्यात्मिक प्रगति, साधना, अभ्यास-क्रम आदि के सन्दर्भ में वहाँ कोई विशेष विश्लेषण प्राप्त नहीं होता। जैसा कि पहले कहा गया है, इस्लाम धर्म में केवल एक ही गृहस्थों का वर्ग है, वहाँ संन्यास के लिए कोई स्थान नहीं है । इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि जिन्हें यथावत् रूप में इस्लाम के प्रतिनिधि तो नहीं कह सकते पर उसी की उत्तरवर्ती शृखला में सूफी सन्तों की परम्परा आती है, जो (सूफी सन्त) अद्वैत वेदान्त और इस्लाम का समन्वित आधार लिये हुए वासनात्मक प्रेम को भगवत्प्रेम में रूपान्तरित कर निराकारोपासना का सन्देश दे रहे थे। वे त्यागी फकीरों के रूप में थे । पर, एक धर्म-सम्प्रदाय के रूप में उनका स्थायित्व नहीं बना। जैन धर्म में गृहस्थ की साधना जैन धर्म का मुख्य आधार सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र है। इन्हीं की आराधना मोक्ष का मार्ग१४ है। जैन धर्म आचार-पालन के भेद से दो रूपों में विभक्त होता है-महाव्रत एवं अणुव्रत । १५ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच व्रत हैं । जब कोई साधक इनका बिना किसी अपवाद के सम्पूर्ण रूप से परिपालन करता है, तब इनके साथ 'महा' विशेषण जुड़ जाता है। इनके सम्पूर्ण निरपवाद स्वीकार की भाषा इस प्रकार बनती है, जैसे-मैं हिंसा नहीं करूंगा, हिंसा नहीं कराऊँगा, हिंसा का अनुमोदन नहीं करूंगा । SHOROR o - wearesomeo www.jamelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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