________________
जैन श्रमण : वेशभूषा-एक तात्त्विक विवेचन | ३८७
२ ॥शग्निसंस्कारबनी।
००००००००००००
००००००००००००
पृ० २९८ ते गुरु १६ वर्ष धरवास रह्या ५५ वर्ष सुधी दिक्षा पाली, ७३ वर्ष सर्व आयु पाली काल को ते साँभली, सर्व संघ मली, शोकसहित शुभ गुरुना देह नु मृत कार्य करता हवा।
यहाँ मृत-संस्कार के सन्दर्भ में मुंह पर मुखवस्त्रिका बांधने का प्रसंग विशेष रूप से विचारणीय है। यदि साधुओं के दैनन्दिन जीवन में अपने मुंह पर मुखवस्त्रिका बाँधना सामान्य नहीं होता तो दाह-संस्कार के समारोह में यह कभी संभव नहीं था कि मत मुनि के मंह पर मुखबस्त्रिका बाँधी जाए, जैसा कि प्रस्तुत चित्र में किया गया है।
पारसी धर्म में, जो विश्व के पुराने धर्मों में ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान लिये हुए है, पूजा के समय, विशेषत: अग्नि में आघ्रय पदार्थों के डालने के समय मुंह को वस्त्र से बांधे रहने की परम्परा है। इसकी गहराई में हम नहीं जायेंगे। पर यह, जो आंशिक ही सही अतकित सादृश्य हम देखते हैं उसके पीछे भी क्या इसी प्रकार का कोई भाव रहा है, यह समीक्षकों के लिए गवेषणा का विषय है।
____ साधारणतया स्थूल दृष्टि से यह भी हम सोच सकते हैं कि अवांछित विजातीय पदार्थ कण-मुंह जो देह का मुख्य प्रवेश-द्वार है, उसमें समाविष्ट न हों, यह भी इससे सधता ही है। चिकित्सक जब शल्य-क्रिया (Operation) करते हैं तो मुख को विशेष रूप से ढके रहते हैं । वहाँ कोई धार्मिक भाव नहीं है किन्तु दूषित वायु, दूषित गन्ध, दूषित परमाणु आदि मुख के द्वारा देह में प्रवेश न कर सकें, ऐसा दृष्टिकोण है। श्रमण के लिए यद्यपि यह उतना तात्त्विक तो नहीं है पर, दूषित पदार्थों के अपहार या अ-समावेश की दृष्टि से कुछ अर्थ तो लिये हुए है ही। काष्ठपात्र : अपरिग्रह के परिचायक
जैन श्रमण किसी भी प्रकार की धातु के पात्र नहीं रख सकता, उसके लिए काष्ठ-पात्र प्रयोग में लाने का विधान है । अपरिग्रह की दृष्टि से इसका अपना महत्त्व है। क्योंकि यद्यपि परिग्रह मूर्छा या आसक्ति पर टिका है पर, मूर्छा-विजय या आसक्ति-वर्जन के लिए बाह्य दृष्टि से स्वीक्रियमाण या व्यवह्रियमाण पदार्थ भी उपेक्ष्य नहीं हैं। उनके चयन में भी मूल्यवत्ता का ध्यान रखना आवश्यक माना गया है । क्योंकि यदि पात्र आदि मूल्यवान् होंगे तो हो सकता है, गृहीता का मन उनमें कुछ अटक जाय । यद्यपि जैन श्रमण त्याग की जिस पवित्र भूमिका में संस्थित है, वहाँ यह कम आशंकित है पर खतरा तो है ही। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। ज्यों ही कुछ आसक्ति या मोह आया, साधक का अन्तर-द्वलन कुछ श्लथित हो ही जाता है। दूसरी बात यह है कि मुल्यवान पदार्थ या वस्तु को देखकर किसी पदार्थ लुब्ध व्यक्ति का मन भी ललचा सकता है । यदि साधक के मन में इस प्रकार की कुछ भी आशंका बन जाय तो उसे यत्किंचित् चिन्ता-निमग्न भी रहना होता है जो उसके लिए सर्वथा अवांछित है।
जैन श्रमण अपने लिये अपेक्षित और स्वीकृत जो भी उपकरण हैं, उन्हें स्वयं वहन करता है, वह न किसी
।
CREE
Shreadmirmirmational
Forvalter SUUSEUM
ran":58zat:- -
wwwjalneliorany.org