________________
३८६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
००००००००००००
000000000000
शास्त्रों में 'यतना' या जागरूकता से बोलने का जो स्थान-स्थान पर निर्देश हुआ, यह विषय उससे भी सम्बन्धित है । अयतना से बोलने से वायुकायिक जीवों की हिंसा होती है, यह तो स्पष्ट ही है।
मुखवस्त्रिका का प्रयोग मुख पर बांध कर किया जाय या हाथ में रखते हुए अपेक्षित समय पर किया जाय, यह विषय विवाद-ग्रस्त है पर इतना तो निश्चित है कि यतना से बोलने के लिए खुले मुंह नहीं बोलना चाहिए । व्यावहारिक दृष्टि से यह ज्यादा उपयोगी प्रतीत होता है कि हाथ में रखने के बजाय उसे मुंह पर धारण किया जाय, क्योंकि बोलना जीवन की अन्यान्य प्रवृत्तियों के साथ-साथ सतत प्रवर्तनशील क्रिया है। इसलिए हाथ में रखते हुए पुनः पुनः उसके प्रयोग में शायद यतना की पूरकता नहीं सधती। आखिर तो श्रमण भी एक मानव है, साधारण लोगों में से गया हुआ एक साधक है, दुर्बलताओं को जीतने का उसका प्रयास है पर सम्पूर्णतः वह जीत चुका हो यह स्थिति नहीं है। इसलिए उसके द्वारा प्रमाद होना, चाहे थोड़ा ही सही, आशंकित है । उस स्थिति में मुंह पर धारण की हुई मुखवस्त्रिका उसके यतनामय जीवन में निश्चय ही सहायक सिद्ध होती है। जो मुखवस्त्रिका को मुंह पर धारण करना मान्य नहीं करते, उनमें भी देखा जाता है कि जब वे मन्दिरों में पूजा करते हैं तो मुंह को वस्त्र से बांधे या ढके रहते हैं। इसके पीछे थूक आदि न गिरे इस पवित्रता की भावना के साथ-साथ हिंसात्मक अयतना के निरोध की भावना भी अवश्य रही होगी।
मुखवस्त्रिका मुंह पर नहीं बाँधना, यह मान्यता वास्तव में सांप्रदायिक परिवेश के तनावों में बड़ी देरी से महत्त्वपूर्ण स्थान पा गई । अन्यथा मुखवस्त्रिका नहीं बाँधने के विषय में आज जैसा आग्रह आज के कुछ पचास वर्षों पहले नहीं था । ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में संवत् १९२६ में प्रकाशित एक पुस्तिका के निम्नांकित चित्र व परिचय दृष्टव्य है
LES
E .... TAKE
TV 65390 MILAMN .....2 DOES ITTETTIH
monium
अथ पण्डित श्री वीरविजय जी कृत
पूजाओ आदी प्रभु पूजा गर्भित भक्ति धर्म देशनादेवानीaबी॥
विनंति रूप अरजी।
आ चोपडि श्री अमदाबाध विद्याशालाथी सा. रवचंद जयचन्दे छपवी सम्यक्त्व धर्म वृद्धि हेते ॥ स०॥ १९२६ आ चोपडि छापनारा बाजी भाइ। अमीचंद ठेकाणं श्री अमदाबाधमां रायपुरमा आका सेठ ना कुवानी पोलमां ॥ पृ० २६४ ॥
तेमने पाटे जिनविजयजी, बीजा शिष्य जसविजयजी थया, ते जसविजयजी गुरु खंभातमां देसना देता हता ते अवसर केशव नग्रमा फरतो थको, गुरुनी देसनानो वरणव सांभली, ते गुरुना दर्शन नी इच्छा धरतो
उपाश्रय मायी आवी केशव गुरु पासे हिदीबीपीछानौछाया
जइ बाँदी यथायोग्य थानके बैसी देसना IRDuसविनमानी एanारमा साँभले छ ।
एहवी छवी थी बाँचवानो आगम ग्रन्थ प्रक्रण रास परम्परा विदमान थी शुद्ध जाणवो॥ ए मारग
2008
doo
MAR