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________________ Jair जैन साधना में तप के विविध रूप | ३७५ १३. गिहत्थ संसठ्ठे गं - विगयों से भरे हाथ, चम्मच आदि से आहार दिया-लिया जाने पर भी नियम मंग नहीं होता है। १४. उक्तिविवेगेणं - ऊपर रखे हुए गुड़, शक्कर आदि को उठा लेने पर भी उनका अंश जिसमें लगा रह गया हो ऐसे आहार को लेने से नियम भंग नहीं होता है । १५. पडुच्चमक्खिएणं —-रोटी आदि पदार्थ को नरम बनाने के लिए घी, तेल आदि लगाए गये हों तो वह आहार लेने से नियम भंग नहीं होता है। श्री भगवती सूत्र के सातवें शतक के आठवें उद्देशक में सर्व उत्तर गुण पच्चक्खाण के दस भेद इस प्रकार किये गये हैं १. अणागय - चतुर्दशी आदि के दिन तप करना हो उस दिन यदि आचार्यादिक की विनय वैयावृत्यादि कराना हो तो एक दिन पहले तप करे उसे अनागत कहते हैं । अतिचार २. मइक्कतं - आचार्यादिक की वैयावृत्यादि करने के बाद तप करे सो अतिक्रांत तप है । ३. कोडीसहियं - आदि, अन्त और मध्य में लिए हुए तप को अनुक्रम से पूर्ण करना कोडीसहियं तप कहलाता है । ४. नियंठियं - अमुक दिन तप ही करूंगा, उसे नियन्त्रित कहते हैं । ५. सागार - आगार सहित तप करने को सागारिक तप कहते हैं । ६. अनागारं - बिना आगार का तप अणागारिक तप कहलाता है । ७. परिमाणकडं - अमुक दिन तक ऐसा ही तप करूंगा सो परिमाणकृत तप कहलाता है । निरवसेसं -- सर्वथा आहारादिकों के त्याग करने को निर्विशेष तप कहते हैं । ८. ६. संक्रियं -- गंठी-मुट्ठी आदि के त्याग करने को संकेत प्रत्याख्यान कहते हैं । १०. अढाए – नमुक्कारसी पोरिसी आदि को अद्धा तप कहते हैं । 'पच्चक्खाणंभवे दसहा' इस प्रकार पच्चक्खाण दस प्रकार से होता है । तप के ५ अतिचार हैं उनका संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है १. इहलोगासंसप्पऊगे — इस लोक में ऋद्धि प्राप्त करने के लिए तप करना प्रथम अतिचार है । २. परलोगासंसप्पऊगे - परलोक के लिए इन्द्रादि सुखों की इच्छा से तप करे यह द्वितीय अतिचार है । ३. जीवियासंसप्पऊगे - अपनी महिमा देख जीने की इच्छा से तप करे यह तृतीय अतिचार है । ४. मरणासंसप्प - महिमा न हो ऐसा जान मरने की इच्छा से तप करे यह चतुर्थ अतिचार है। ५. कामभोगासंसप्पऊगे - काम भोग प्राप्त करने की इच्छा से तप करे यह पंचम अतिचार है । इन अतिचारों को जानकर निष्काम भाव से तपाराधना की जानी चाहिए। की गई तपस्या का निदान कभी नहीं करना चाहिए । ज्ञान, दर्शन और चारित्र की अभिवृद्धि के लिए कई तिथियों पर विशेष तप प्रारम्भ किये जाते हैं । संक्षेप में कनकावली आदि तपों का तथा पर्व और व्रतों की तिथियों का वर्णन (जिन तिथियों पर अनशन तपाराधना की जाती है) किया जा रहा है। (१) रत्नावली तप - रत्नावली तप की एक लड़ी में एक वर्ष, तीन महीने और बावीस दिन लगते हैं जिनमें से तीन सौ चौरासी दिन उपवास के और अठ्यासी दिन पारणे के, यों कुल चार सौ बहत्तर दिन होते हैं । इसकी विधि इस प्रकार है । उपवास करके पारणा, फिर बेला करके पारणा, तेला करके पारणा, पारणा करके आठ बेले किए जाते हैं । इसके बाद उपवास पारणा → बेला पारणा इस तरह अन्तर से सोलह तक उपवास करके चौंतीस बेले किए जाते हैं । फिर जिस क्रम से तपस्या प्रारम्भ की थी उसके विपरीत लड़ी में उपवास तक उतरा जाता है । फिर आठ बेले करके पारणा बेला पारणा बेला पारणा उपवास किया जाता है । रत्नावली तप की चार लड़ियां की जाती हैं, दूसरी लड़ी में विगयों का त्याग रहता है, तीसरी लड़ी के पारणों में लेप वाले पदार्थों का भी त्याग रहता है तथा चौथी लड़ी के पारणों में आयम्बिल किए जाते हैं । Taal Used Freddies 000000000000 FINI - 000000000000 *CODECODE www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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