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________________ ३७४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० ०००००००००००० TITTY S... ..... UTTARY आगारों के अर्थ १. अन्नत्यणाभोगेणं-भूल से (बिना उपयोग से) अज्ञात अवस्था में कोई भी वस्तु मुख में डालने से त्याग नहीं टूटते हैं । यदि प्रत्याख्यान याद आने से तुरन्त थूक देवे तो भी त्याग में दोष नहीं आता है, बिना जाने खा लिया, बाद में स्मरण हो जाने पर भी दोष नहीं लगता है किन्तु शुद्ध व्यावहारिकता के लिए प्रायश्चित्त लेकर निशंक होना जरूरी है। २. सहस्सागारेणं-जो त्याग लिये हुए हैं वे याद तो जरूर हैं परन्तु आकस्मिक स्वाभाविक रूप से दधि-मंथन करते मुख में बूंद गिर जाय अथवा गाय-भैंस को दोहते, घृतादिक मंथन करते, घृतादिक तोलते, अचानक पदार्थ मुख में आ जाए, वर्षा की बूंदें चौविहार उपवास में भी मुख में पड़ जावे तो भी त्याग भंग नहीं होते हैं । ३. पच्छन्नकालेणं-काल की प्रच्छन्नता अर्थात मेघ, ग्रह; दिग्दाह, रजोवृष्टि, पर्वत और बादलादि से सूर्य . ढक जाने पर यथातथ्य काल की मालूम न हो उस समय बिना जाने अपूर्ण काल में खाते हुए भी त्याग भंग नहीं होता। ४. दिशा मोहेणं-दिशा का मूढ़पना अर्थात् दृष्टि विपर्याय से अजानपूर्वक पूर्व को पश्चिम और पश्चिम को पूर्व समझ के भोजन करे, खाने के बाद दिशा ज्ञान हो तो भी व्रत भंग नहीं होता है। ५. साहूवयणेणं-साधुजी (आप्त पुरुष या आगम ज्ञानी) के वचन-पहर दिन चढ़ गया ऐसा सुनकर आहार करे तो त्याग भंग नहीं होता है। ६. सव्वसमाहिवत्तियागारेणं-सर्व प्रकार की समाधि रखने के लिए अर्थात् त्याग करने के पश्चात् शूलादिक रोग उत्पन्न हुए हों या सादिकों ने डंक दिया हो, उन वेदनाओं से पीड़ित होकर आर्तध्यान करे तब सर्व शरीरादिक की समाधि के लिए त्याग पूर्ण नहीं होने पर भी औषधादिक ग्रहण करे तो उसका नियम भंग नहीं होता है। उपशान्ति (समाधि) होने पर यथातथ्य नियम पालना कर ली जाती है। ७. महत्तरागारेणं-महत् आगार यानि बड़ा आगार जैसे कोई ग्लानादिक की वैयावच्च के लिए या अन्य से कार्य न होता हो तो गुरु या संघ के आदेश से समय पूर्ण हुए बिना ही आहार करे तो नियम भंग नहीं होता है। कोई भी बड़ा कार्य यानि त्याग किये हुए हैं उनसे भी अधिक निर्जरा के लाभ का कोई कार्य हो ऐसी स्थिति में महत्तरागारेणं रखा गया है। ८. सागारियागारेणं-साधु आहार के लिए बैठे हुए हैं वहाँ पर अचानक कोई गृहस्थ आ जाते हैं तो उनके सामने आहार ग्रहण नहीं किया जाता है। यदि गृहस्थ वहाँ स्थित रहा हुआ जाना जाय या गृहस्थ की दृष्टि आहार पर पड़ती हो तो वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर जाकर आहार करें, क्योंकि गृहस्थ के सामने आहार ग्रहण करने से प्रवचन घातिक महतदोष सिद्धान्त में कहे हैं। गृहस्थ एकासन करने बैठा हो, उस समय सर्प आता हो, अकस्मात अग्नि लगी हो मकान गिरता हो, पानी आदि का बहाव आता हो तो भी वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर जाते हुए भी एकासनादि नियम भंग नहीं होता है । ६. आउटुणपसारेणं-भोजन करते समय हाथ-पैर और अंगोपाङ्गादिक संकोचते या पसारते आसन से चलित हो जाय तो नियम भंग नहीं होता है। १०. गुरु अब्भुट्ठाणणं-एकासन करते समय गुरु, आचार्य, उपाध्याय और मुनिराज पधार जायें तो उनकी विनय भक्ति के लिए उठ-बैठ करने पर भी नियम भंग नहीं होता है। ११. पारिठावाणियागारेणं-निर्दोष रीति से ग्रहण किया हुआ आहार शास्त्रोक्त रीति से खाने के बाद भी अधिक हो जाय तथा उस स्निग्ध विगयादिक आहार को डालने से जीव विराधानादिक कई दोष उत्पन्न हो जायें यह जान के शेष बचे हुए आहार को गुरु की आज्ञा से एकासनादि तप से लेकर उपवास पर्यन्त तप धारक साधु उस आहार को ग्रहण करे फिर भी नियम भंग नहीं होता है यह आगार साधुजी के लिए ही माना गया है। १२. लेवालेवेणं-घृतादिक से हाथ अथवा वर्तन के कुछ अंश भोजन में लगे उसे लेप कहते हैं । वस्त्रादि से उसे पोंछ लेने पर लेप दृष्टिगत न हो उसे अलेप कहते हैं। ऐसे लेप और अलेप वाले बर्तनों में भोजन लेने से नियम भंग नहीं होता है। CERIES .... - ANCERAR Educationwinternationa reODEO NEHA
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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