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________________ अभिनन्दनीय वृत्त : सौभाग्य मुनि 'कुमुद' | ११ 2 ०००००००००००० 000000000000 मुनिश्री का यह अद्भुत सन्देश सुनकर कार्यकर्ता और जनता दंग रह गये। उनके सामने उस बालक को मुक्त करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। बालक ज्योंही मुक्त हुआ, मुनिश्री के पाँव पकड़कर अपने कुकर्म पर रोने लगा। मुनिश्री ने उसे प्यार देकर विदा किया। इसी को तो कहते हैं कवि की भाषा में-"जिन्दगी हर मरहले पर मुस्कुराती ही रही है।" मेवाड़ से बाहर पाठक जान ही चुके हैं, कि पूज्यश्री के साथ मुनिश्री का बम्बई की तरफ प्रस्थान हुआ। उस वर्ष का चातुर्मास बम्बई ही रहा । इसके बाद का वर्षावास अहमदनगर था। गुरुदेव बताया करते हैं कि वहाँ श्री शान्ताकु वरजी जैसी विदुषी महासतीजी तथा कई विद्वान श्रावकों से प्रायः तत्त्व-चर्चा होती रहती और यों चातुर्मास व्यतीत हो गया। सं० १९६१ का चातुर्मास मनमाड रहा । एक भाई (चुन्नीलालजी लोढा) ने अपनी सारी सम्पत्ति संघ को समर्पित कर दी। पूज्यश्री अभी और दूर-दूर विचरण करना चाहते थे। किन्तु हमारे चरितनायक के गुरुदेव पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज को मेवाड़ के चतुर्विध संघ ने आचार्य पद देना निश्चित कर लिया था। संघ का आग्रह अपरिहार्य था। फलतः मनमाड के बाद फिर मेवाड़ आना हुआ। एक यह भी दृश्य देखा गुरुदेव बताया करते हैं कि मनमाड से जब हम मेवाड़ में आये तो घासा में मेवाड़ सम्प्रदाय का चतुर्विध संघ एकत्रित होकर पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज से आचार्य पद स्वीकार करने का आग्रह करने लगा। किन्तु गुरुदेव ने निःसंकोच स्पष्ट इन्कार कर दिया। एक तरफ संघ पद देने को आतुर था, दूसरी तरफ गुरुदेव बराबर मनाही कर रहे थे। पूज्यश्री की यह अद्भुत निस्पृहता देखकर मैं दंग रह गया । उस अनुभव के साथ आज के पदाग्रह के वातावरण की तुलना करता हूँ तो मन को एक चोट-सी लगती है । कहाँ आज का पदाग्रह और कहाँ वह निस्पृहता ! उस वर्ष का चातुर्मास सनवाड़ रहा । सं० १९६३ ज्येष्ठ शुक्ला २ को सरदारगढ़ में पूज्यश्री को विवश कर आचार्य पद दे दिया गया था। संघ में एकता के सुन्दर वातावरण की सृष्टि हुई। हमारे चरितनायक ने इस सारे कार्यक्रम में प्रमुख भूमिका अदा की। . समर्पित जीवन किसी युग में मेघकुमार मुनि ने प्रतिज्ञा की थी-"मैं इन दो आँखों की देखभाल करूगा। शेष सारा शरीर सेवा में समर्पित है।" आगमों के प्रमाण से इसे हम जान पाये। किन्तु श्री अम्बालालजी के रूप में इस आदर्श को हम देख पाये हैं । इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है । जिसने भी इनसे साक्षात्कार किया है, प्रत्येक व्यक्ति निःसंकोच कहेगा-"श्री अम्बालालजी के रूप में हम सेवा को मूर्तिमन्त देख रहे हैं।" अपने आपके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को किसी आराध्य में विलीन कर देना, समर्पण की पराकाष्ठा है। तथा वह मुनिश्री में स्पष्ट पाई गई। अपना अलग कुछ नहीं, सब कुछ उन्हीं का और उन्हीं के लिये, जिनको 'गुरु' स्वीकार कर लिया। छाया की तरह पूज्यश्री के निरन्तर साथ रहने वाले श्री अम्बालालजी महाराज पूज्यश्री की उपस्थिति में ही नहीं, उनके स्वर्गस्थ होने के बाद तक भी जो भी महत्त्व का कार्य सम्पन्न हुआ, उसे गुरु का ही मानते रहे, आज भी ऐसा ही मानते हैं। जहाँ पूज्यश्री मोतीलालजी महाराज वहीं श्री अम्बालालजी महाराज, मेवाड़ ही नहीं भारत भर के हजारों परिचितों भक्तों में से किसी ने कभी भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अम्बालालजी महाराज कहाँ हैं ? सभी का दृढ़ निश्चय था- जहाँ गुरु वहीं शिष्य । जहाँ पूज्यश्री मोतीलालजी महाराज वहीं अम्बालालजी महाराज सहभावी पर्याय की तरह सर्वदा पूज्यश्री की सेवा में बने रहे। MORN
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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