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साधना पथ के दृढव्रती साधक—जैन श्रमरण की आचारविधि का आगम-सम्मत एवं सर्वांगीण सरल विवेचन
विदुषी आर्या चन्द्रावती जी ने यहाँ प्रस्तुत किया है ।
आर्या चन्द्रावती 'जैन सिद्धान्ताचार्य' [विदुषी लेखिका तथा साधनानिष्ठ श्रमणी ]
श्रमणाचार : एक अनुशीलन
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आर्य संस्कृति का मौलिक तत्व - आचार
आर्य संस्कृति में एक ऐसा मौलिक महत्त्व है जिसके आधार पर भारत के गौरव की प्राण प्रतिष्ठा हुई है । उसका नाम है 'आचार' । 'आचार' भारत का ऐसा चमचमाता सितारा है जिसकी अत्युज्वल यशोरश्मियाँ विराट् - विश्व में यत्र-तत्र सर्वत्र परिव्याप्त हो रही हैं । आचार आर्य संस्कृति की महिमा का मूलाधार है, और जन-जीवन की प्रतिष्ठा का प्राण है । आचार के बल पर ही मानव- महामानव एवं आत्मा-परमात्मा के चरमोत्कृष्ट गौरव के गगनचुम्बी शिखर पर चढ़कर अत्युच्च पद पर प्रतिष्ठित होता है। भारतीय संस्कृति से यदि आचार जैसा मौलिक तत्त्व निकाल दिया जाय तो वह नवनीत-विहीन दुग्धवत निस्सार है, जीवशून्य देहवत मृतक है, एवं अंक रहित शून्यवत शून्य है । 'आचार' ही भारत को जगद्गुरु बनाने की योग्यता का उपहार दिलाने का सर्वथा समर्थ साधन है । इसीलिए महान श्रुतवर आचार्य भद्रबाहु ने कहा है-अंगाणं किं सारो - आयारो ! - अंगों (श्रुतज्ञान) का सार क्या है ? आचार !
भारत देश जितना कृषि प्रधान है उतना ही अधिक ऋषि प्रधान भी है। यहाँ जहाँ नीलांचल फहराती अन्न की फसलें झूमती हैं तो वहीं उनके चारों ओर चक्कर लगाती रंग-विरंगे वसन पहने कोकिल कंठी कृषक वधुएँ एवं कृषक कन्याएँ ऋषि-मुनियों की अमर यशोगाथाएँ अपने स्वर्गीय संगीतों से मुखर करती रहती हैं ।
विराट् हृदय भारत के पुण्य प्रांगण में अनेक धर्मों की संस्कृतियों का उद्गम, संरक्षण एवं संवर्द्धन हुआ है । जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम, पारसी, सिक्ख इत्यादि । किन्तु शत सहस्र लक्षाधिक धर्म संस्कृतियों में भारत की अतिप्राचीन एवं अपनी निजि दो मौलिक संस्कृतियाँ हैं एक है श्रमण संस्कृति, दूसरी है ब्राह्मण संस्कृति । दोनों संस्कृतियों में कहीं एकरूपता है, तो कहीं अनेकरूपता भी है । फिर भी दोनों एक-दूसरे के समीप हैं। दोनों के तुलनात्मक संशोधन करने में अतीव-गंभीर अध्ययन व श्रम अपेक्षित है। अतः यहाँ एकमात्र श्रमण संस्कृति के एक महान् तत्त्व 'श्रमणाचार' पर विवेचन कर रहे हैं ।
श्रमण साधना में आचार का स्थान - परिभाषा व प्रभाव
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अध्यात्म विज्ञान के आविष्कार का फल है धर्म और धर्म के आविष्कर्त्ता या संशोधक है धर्म-गुरु । भौतिकविज्ञान के आविष्कर्त्ता वैज्ञानिक होते हैं और उसका फल है बाहर के जड़ परिवर्तन, वायुयान, पंखे, रेडियो, सिनेमा, विद्य ुत, प्रेस, टेलीफोन, टेलिविजन, रेफरीजरेटर इत्यादि लाखों यांत्रिक साधन भौतिक विज्ञान के प्रतीक हैं । और आत्मविज्ञान के आविष्कर्त्ता होते हैं धर्म-गुरु । जो बाहर के समस्त साधनों को सीमित कर एकमात्र शुद्धात्मा की खोज में लग जाते हैं । यद्यपि भौतिक विज्ञान एवं आत्म-विज्ञान दोनों का एकमात्र उद्देश्य है सुख, किन्तु दोनों से प्राप्त हुए सुख में दिन-रात अथवा आकाश-पाताल का अन्तर है । एक अशाश्वत है तो दूसरा शाश्वत । एक की प्राप्ति संरक्षण एवं
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