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________________ ३४६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० दोनों की परम अपेक्षा होती है। लौकिक एवं पारलौकिक उभयविध कार्यों की सिद्धि में भी इन दोनों का समन्वय परम आवश्यक होता है । योग साधन भी एक क्रिया है । इस साधना में प्रवृत्त होने वाले के लिए आत्मा, योग, साधना आदि आध्यात्मिक तत्त्वों का ज्ञान होना आवश्यक है। जैन परम्परा-श्रमणपरम्परा के मूल ग्रन्थ आगम हैं। उनमें वणित साध्वाचार का अध्ययन करने से यह स्पष्टत: परिज्ञात होता है कि पांच महाव्रत, समिति, गुप्ति, तप, ध्यान और स्वाध्याय आदि जो योग के मुख्य अंग हैं; उनको श्रमण-साधना के अनुयायी साधु जीवन का प्राण३४ माना है। वस्तुत: आचार साधना-श्रमण साधना का मूल, प्राण और जीवन है । आचार के अभाव में श्रमणत्व की साधना मात्र कंकाल एवं शवस्वरूप होकर निष्प्राण रह जाएगी। जैनागमों में 'योग' शब्द 'समाधि' या 'साधना' के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है । यहाँ इसका अर्थ है-'मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति' यह दो प्रकार का है शुभ और अशुभ । दोनों का ही निरोध करना श्रमण साधना का ध्येय है । अतः जैनागमों में साधु को आत्मचिन्तन के अतिरिक्त अन्य कार्य करने की आज्ञा नहीं दी गयी है। यदि साधु के लिए अनिवार्य रूप से प्रवृत्ति करना आवश्यक है तो आगम द्वारा निवृत्तिपरक प्रवृत्ति करने की अनुमति दी गई है। इस प्रवृत्ति को आगमिक भाषा में 'समिति गुप्ति' कहा जाता है। इसे 'अष्ट प्रवचन माता' भी कहा जा सकता है। श्रमण साधना का मुख्य लक्ष्य है--योग =काय -वाक्, मन की चञ्चलता का पूर्ण निरोध । किन्तु इसके लिए हठयोग की साधना को बिल्कुल महत्त्व नहीं दिया गया है । क्योंकि इससे बलात्-हठपूर्वक, रोका गया मन कुछ क्षणों के अनन्तर ही सहसा नियंत्रण मुक्त होने पर स्वाभाविक वेग की अपेक्षा तीव्रगति से प्रवाहित होने लगता है। और सारी साधना को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। जैनागमों में 'योगसाधना के अर्थ में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसका अभिप्राय है अपने योगों को 'आत्मचिन्तन में प्रवृत्त करना' । इसमें कायिक स्थिरता के साथ-साथ मन और वचन को भी स्थिर किया जाता है। जब मन चिन्तन में संलग्न हो जाता है, तब उसे यथार्थ में 'ध्यान' एवं 'साधना' कहते हैं। ANCHOILA TITITIES KATHA MUSHTAS १ उत्तराध्ययन २६।२५-२६ । २ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्त्वार्थ० १११ ३ मोक्षोपायो योगः ज्ञान-श्रद्धान-चरणात्मकः । -अभिधानचिन्ता० ११७७ ४ युजपी योगे-हेमचन्द्र धातुपाठ-गण ७ ५ युजिच समाधौ ,, -गण ४ ६ मोक्खेण जोयणाओ जोगो -योगविशिका १ ७ मोक्षेण योजनादेव । योगो पत्र निरुच्यते-द्वात्रिशिका । ८ अध्यात्मभावनाध्यानं समतावृत्ति संक्षयः । मोक्षेण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। -योगबिन्दु ३१ ।। ६ योगविंशिका-१ (व्याख्या) १० दुगमित्थ कम्मजोगो, तहा तियं नाणजोगो उ-योगविंशिका २ ११ ट्ठाणुन्नत्थालंबण-रहिओ तं तम्हि पंचहाएसो- २ १२ प्रात: स्नानोपवासादिकायक्लेशविधि बिना। एकाहारं निराहारं यामत्ति च न कारयेत ।। -घेरण्ड सं० ५॥३०॥ १३ आवश्यकनियुक्तिपत्र-२३६।३०० ॥ १४ (क) दशवैका०-८ (ख) मिताहारं विना यस्तु योगारंमं तु कारयेत । नाना रोगो मवेत्तस्य कश्चित् योगो न सिंचति ।। -घेरण्ड सं० ५।१६ । (AIRAR HERE BAR JenEducation-international LEARPrivates.PersonaLileeonlb inobranuar
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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