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0 डा० मुक्ताप्रसाद पटैरिया
शक्ति का मूल स्रोत साधना है। साधना के द्वारा ही जीवन व मृत्यु पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है। आत्म-विकास के चरम शिखर पर चड़ने का मार्ग साधना ही है । प्रस्तुत में 'जैन साधना-पद्धति' का एक तुलनात्मक विश्लेषरण पढ़िए।
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----- जैन-साधना-पद्धति : एक विश्लेषण
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भारतीय इतिहास की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में साधना का महात्म्य प्रारम्भ से ही रहा है । ऐहिक-सुखों की सहज सुलभता तथा चरम पुरुषार्थ-'मोक्ष' (कर्मविमुक्ति) की उपलब्धि समान रूप में साधना से सम्भव होती है । श्राप और वरदान, मुक्ति व भुक्ति की सनातन परम्परा का मूल केन्द्र साधना-शक्ति ही रही है । जीवन और मृत्यु के झूले में दोलायमान मानव का चिन्तनशील मन सदा से ही यह समाधान ढूंढ़ने में संलग्न रहा है। भारतीय संस्कृति का मूल अध्यात्मपरक है। इसकी दृष्टि में जीवन और मृत्यु भी एक विशिष्ट कला रूप है। इस कला में भी निपुणता प्राप्ति का मूल साधन 'साधना' है, जिसके बल पर मानव इन दोनों-'जीवन व मृत्यु', पर नियन्त्रण प्राप्त कर सकता है ।
इस परिप्रेक्ष्य में शक्ति के मूल स्रोत के अन्वेषक तत्त्वद्रष्टा ऋषियों एवं मुनियों ने तर्क की अपेक्षा-'श्रद्धा' और बहिर्दर्शन की अपेक्षा 'अन्तर्दर्शन' को महत्त्वपूर्ण सिद्ध करते हुए कहा कि-'जहाँ पर काय वाक् एवं मनोवृत्तियों की चरम सीमा है, वहाँ से अन्तर्दर्शन की प्रवृत्ति का शुभारम्भ होता है। सत्य की उपलब्धि को इन्होंने 'अन्तर्दर्शन' के रूप में स्वीकारा है । यहाँ 'सत्य' से तात्पर्य शक्ति के स्रोत 'आत्मा' से है । आत्मा के दर्शन-'अन्तर्दर्शन' का साधन जैन परिभाषा में 'मोक्षमार्ग' के रूप में प्रतिपादित मिलता है। जैनेतर दार्शनिक भाषा में इसे 'योग' तथा जनसाधारण की भाषा में 'साधना' भी कह सकते हैं । यहाँ 'साधना' का स्पष्ट तात्पर्य है-'इन्द्रियनिग्रह' । जैन-दर्शन में इसका नामान्तर 'संवर" शरीर, मन और वाणी की प्रवृत्तियों का पूर्ण निरोध, कहा गया है। महर्षि पतञ्जलि ने इन्द्रियनिग्रह को 'योग' तथा बौद्धाचार्यों ने 'विशुद्धि मार्ग' के नाम से सम्बोधित किया है किन्तु जैनाचार्यों ने 'मोक्षमार्ग'२ के साथ-साथ 'योग' नाम से भी इसे अभिहित किया है ।
योग का अर्थ-'युज्' धातु और 'घ' प्रत्यय से योग शब्द सम्पन्न होता है। संस्कृत व्याकरण में युज् धातु दो हैं । एक का अर्थ है-'जोड़ना-संयोजित करता और दूसरी का अर्थ हैं-'समाधि'५-मन की स्थिरता । भारतीय दर्शन में योग शब्द का प्रयोग दोनों ही अर्थों में हुआ है। चित्तवृत्ति के निरोध रूप में महर्षि पतञ्जलि ने, 'समाधि' के रूप में बौद्ध विचारकों ने योग को माना है। जबकि जैनाचार्यों ने योग को कई अर्थों में प्रयुक्त किया है। आचार्य हरिभद्र ने उन समस्त साधनों को योग माना है जिनसे आत्म-विशुद्धि होती है, कर्ममल का नाश होता है और मोक्ष के साथ संयोग होता है। उपाध्याय यशोविजय जी ने भी यही व्याख्या की है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार आध्यात्मिक भावना और समता का विकास करने वाला, मनोविकारों का क्षय करने वाला तथा मन, वचन और कर्म को संयत रखने वाला 'धर्म व्यापार' ही श्रेष्ठ योग है।
इस प्रकार साधना के सन्दर्भ में 'योग' की भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ दार्शनिकों ने की हैं। जिनके विश्लेषण के सन्दर्भ में अनेकों ग्रन्थों की रचना की गयी। जेनेतर दार्शनिकों में योग के प्रमुख आचार्य महर्षि पतञ्जलि को यौगिक व्याख्याओं के आधार पर दर्शन की एक प्रमुख शाखा ही प्रादुर्भुत हो गयी। इसी परम्परा में जैनाचार्यों ने भी अनेक ग्रंथों
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