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________________ ३२६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 ०००००००००००० THMETI होता है । पर, यहाँ भी यह ज्ञातव्य है कि सहज सरल भाव के आते ही माया टिक नहीं पाती। इसलिए निश्चय की भाषा यहाँ भी यही बनती है कि सरलता को अपनाओ, माया स्वयं अपगत होगी । लोभ और संतोष के सन्दर्भ में यही वास्तविकता है। शान्ति, मृदुता, ऋजुता तथा सन्तोष का जीवन में ज्योंही समावेश होगा, आत्मा में एक अभिनव चेतना तथा संस्फूर्ति का संचार होगा। सूत्रकार जिसे आत्म-हित सधना कहते हैं, वह यही तो है । ऐसा होने से ही आत्म-प्रसाद अधिगत होता है जिसकी गीता के सन्दर्भ में ऊपर चर्चा हुई है। मन : कामनाएँ : संवरण गीता में जहाँ स्थितप्रज्ञ का प्रकरण प्रारम्भ होता है, वहाँ अर्जुन द्वारा योगिराज कृष्ण से निम्नांकित शब्दों में प्रश्न किया गया था "स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव । स्थितधी: कि प्रभावेत, किमासीत व्रजेत किम् ॥"८ अर्जुन ने पूछा-भगवन् ! समाधिस्थ-समता भाव में अवस्थित स्थितप्रज्ञ की क्या परिभाषा है ? वह कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है ? लगभग इसी प्रकार की जिज्ञासा दशवकालिक में अन्तेवासी अपने गुरु से करता है कहं चरे कहं चिठू, कहमासे कहं सए। कहं भूजन्तो भासन्तो पावकम्मं न बन्धइ ॥ वह कहता है-मैं कैसे चलूं, कैसे खड़ा होऊँ, कैसे बैठू, कैसे सोऊं, कैसे खाऊँ, कैसे बोलूं, जिससे मैं निर्मल, उज्ज्वल रह सकू। दोनों ओर के प्रश्नों की चिन्तन-धारा में कोई अन्तर नहीं है। ठीक ही है, मोक्षार्थी जिज्ञासु के मन में इसके अतिरिक्त और आयेगा ही क्या ! जहाँ गीता के इस प्रश्न के समाधान में, जैसा ऊपर विवेचन हुआ है, स्थितप्रज्ञ का दर्शन विस्तार पाता है, उसी प्रकार जैन आचार-शास्त्र का विकास भावतः इसी जिज्ञासा का समाधान है। स्थितप्रज्ञ : वीतराग : अन्तर्दर्शन अर्जुन द्वारा किये गये प्रश्न पर श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञ की जो परिभाषा या व्याख्या की वह निम्नांकित रूप में है दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेष विगतस्पृहः । वीतरागभयक्रोधः स्थितधी, निरुच्यते ।। यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। यदा संहरते चायं, कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥१० गीताकार कहते हैं कि दुःखों के आने पर जो उद्वेग नहीं पाता, सुखों के आने पर जिसकी स्पृहा या आकांक्षा उद्दीप्त नहीं होती, जिसे न राग, न भय और न क्रोध ने ही अपने वशंगत कर रखा है अर्थात् जो इन्हें मिटा चुका है, उसकी बुद्धि स्थित या अचञ्चल होती है, वह स्थितप्रज्ञ है-स्थिरचेता उच्च साधक है।। जिसके स्नेह-रागानुरञ्जित आसक्तता का संसार मिट गया है, जो शुभ या प्रेयस् का अभिनन्दन नहीं करता, अशुभ या अप्रेयस् से द्वेष नहीं करता, उसकी बुद्धि सम्यक् अवस्थित रहती है, वह स्थितप्रज्ञ है। जिस प्रकार कछुआ अपने सब अंगों को सम्पूर्णतः अपने में समेट लेता है, उसी प्रकार जो अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच लेता है । उसकी प्रज्ञा अविचल होती है, सम्यक् प्रतिष्ठित होती है, वह स्थितप्रज्ञ है। 0.0RO Oidio on Jain For private. Dersonal use only nelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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