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________________ जैनागमों में मुक्ति : मार्ग और स्वरूप | ३१३ ०००००००००००० ०००००००००००० mmy KUMAmy मुक्तात्मा के प्राणों का प्रयाण मुक्तात्मा के प्राण (देहावसान के समय) सर्वांग से निकलते हैं । देवगति में जाने वाले के प्राण शिर से निकलते हैं। मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति में जाने वालों के प्राण क्रमशः वक्षस्थल (मध्यभाग) से, पिण्डलियों से और पैरों से (अधोभाग से) निकलते हैं । ४ चार प्रकार की अन्तक्रिया-मुक्ति ५ प्रथम अन्तक्रिया-कोई अल्पकर्मा व्यक्ति मनुष्य भव में उत्पन्न होता है। वह मुण्डित होकर गृहस्थावस्था से अनगार धर्म में प्रवजित होने पर उत्तम, संयम, संवर, समाधि युक्त रूक्ष भोजी, स्वाध्यायी, तपस्वी, भवसागर पार करने की भावना वाला होता है । न उसे कुछ तप करना पड़ता है और न उसे परीषह सहने पड़ते हैं, क्योंकि वह अल्पकर्मा होता है। ऐसा पुरुष दीर्घायु की समाप्ति के बाद सिद्ध-बुद्ध मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है, यथा-भरत चक्रवर्ती । द्वितीय अन्तक्रिया-कोई अधिक कर्म वाला मनुष्य भव पाकर प्रवजित होता है। संयम, संवर युक्त यावत् तपस्वी होता है उसे उग्र तप करना पड़ता है और असह्य वेदना सहनी पड़ती है। ऐसा पुरुष अल्पायु भोग कर सिद्ध बुद्ध मुक्त होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करना है, यथा-गजसुकुमार अणगार । तृतीय अन्तक्रिया-कोई महाकर्मा मनुष्य मुण्डित-यावत्-प्रवजित होकर अनगार धर्म की दीक्षा लेता है । वह उग्र तप करता है और अनेक प्रचण्ड परीषह सहता हुआ दीर्घायुभोग कर सिद्ध बुद्ध मुक्त होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, यथा-सनत्कुमार चक्रवर्ती। चतुर्थ अन्तक्रिया-कोई अल्पकर्मा व्यक्ति केवल भाव चारित्र से सिद्ध बुद्ध और मुक्त होता है । न उसे तप करना पड़ता है और न परीषह सहने पड़ते हैं, यथा--मरुदेवी माता। मुक्ति के दो प्रमुख हेतु (१) बन्धहेतुओं का अभाव-१ मिथ्यात्व, २ अविरति, ३ प्रमाद, ४ कषाय और ५ योग ये पांच हेतु कर्मबन्ध के हैं । इनके अभाव में क्रमश: पांच संवर के हेतु प्राप्त होते हैं । १ सम्यक्त्व, २ विरति, ३ अप्रमाद, ४ अकषाय और ५ योग गुप्ति-ये पांच हेतु आत्मा को कर्मबन्ध से बचाते हैं । अर्थात् नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। (२) निर्जरा-१-६ अनशन आदि ६ बाह्य तप और ७-१२ प्रायश्चित्त आदि ६ आभ्यन्तर तप-ये बारह भेद निर्जरा के हैं । इनसे पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय होता है। केवल अनशनादि ६ बाह्य तपों के आचरण से सकाम निर्जरा (विवेकपूर्वक कर्म क्षय) नहीं होती साथ में प्रायश्चित्तादि ६ आभ्यन्तर तपों की आराधना भी आवश्यक है। बाह्य तपों की आराधना किए बिना यदि कोई केवल आभ्यन्तर तपों की ही आराधना करे तो उसके सकाम निर्जरा हो जाती है । केवल बाह्य तपों की आराधना से तो अकाम (अविवेकपूर्वक) निर्जरा होती है। कर्म निर्जरा का एक रूपक जिस प्रकार किसी बड़े तालाब का जल, आने के मार्ग को रोकने से और पहले के जल को उलीचने से सूर्यताप द्वारा क्रमशः सूख जाता है उसी प्रकार संयमी के करोड़ों भवों के संचित कर्म पापकर्म के आने के मार्ग को रोकने से तथा तप करने से नष्ट होते हैं । १७ MARATHI AIIMIRCT PRO TAASAT . mr.53dast www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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