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' आगमकालीन नय-निरूपण | २६७
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समभिरूढ़ नय
__ शब्द के अनेक अर्थों में से एक रूढ़ अर्थ के रूप में आशय ग्रहण करने वाला कथन समभिरूढ़ नय कहा गया है। एवंभूत नय
शब्द के अर्थ रूप क्रिया का अनुसरण करने वाले कथन को एवंभूत नय कहा गया है।
नयों के प्रसंग में अनुयोगद्वार और षट्खंडागम के उपर्युक्त अनुशीलन से ऐसा लगता है कि आगमकाल में वणित नयों का न्याय के ग्रन्थों में वर्णित प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा आदि प्रमाणों से कोई सम्बन्ध नहीं था और न नयों का स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति आदि भेद रूप स्याद्वाद या अनेकान्त से ही कोई सम्बन्ध था। न नय किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय विशेष के दर्शन का प्रतिपादक ही था। पदार्थ के अनन्त गुणों में से नय किसी एक गुण अथवा दृष्टि को अपनाता है, इस रूप में न नय प्रमाण का अंश था और नयों का समुदाय मिलकर प्रमाण बनता है, ऐसा भी कुछ नहीं था। न शुद्ध नय, अशुद्ध नय या दुर्नय का ही वहाँ वर्णन है। वास्तविकता तो यह है कि आगमकाल में चार प्रमाण माने गये हैं। यथा-१. द्रव्य प्रमाण, २. क्षेत्र प्रमाण, ३. काल प्रमाण और ४. भाव प्रमाण । इनमें भाव प्रमाण के तीन भेद-गुण, नय और संख्या कहे गये हैं । इस प्रकार चारों प्रमाणों में से मात्र एक भाव प्रमाण से नय का सम्बन्ध है और वह भी मात्र एक भेद के रूप में । आगम सिद्धान्त के आशय को स्पष्ट करने के लिये चार अनुयोगों का उपयोग करने की प्रणाली रही है, उन चार अनुयोगों में नय भी एक अनुयोग है, जिसका कार्य यह जानना है कि आगम में प्रयुक्त कथन (शब्द) से प्रतिपादित विषय की कौन-सी अवस्था अभिप्रेत है।
प्रस्तुत लेख लिखने के पीछे भावना यह है कि तत्त्वज्ञ व विद्वद्गण नयों के स्वरूप पर विचार करें और यथार्थ रूप को प्रस्तुत करें।
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इच्छा बहुविहा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति । तम्हा इच्छामणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधति ।।
-ऋषिभाषित ४०।१४ संसार में इच्छाएं अनेक प्रकार की हैं, जिनसे बंधकर जीव दुःखी होता है। । अतः इच्छा को अनिच्छा से जीतकर साधक सुख पाता है ।