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________________ २८२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ ०००००००००००० 000000000000 D PARAN LUTITION ... ... A यह सही है कि अनेकान्तवाद की प्रस्तावना दार्शनिक क्षेत्र में तत्त्व-विवेचन के लिए हुई थी, लेकिन वह मौतिक जगत् के मूलरूप की सही व्याख्या प्रस्तुत करने में सक्षम है। विज्ञान अब यह मानता है कि निरपेक्ष कुछ भी नहीं है, सभी ज्ञान सापेक्ष है। अत: सापेक्षता के लिए कुछ मानक स्थिर किये जाते हैं। यह सापेक्षता सामान्य लोक-व्यवहार की सीमा को लांघ कर गणितीय रूप में सूक्ष्म तथ्यों के विवेचन में न केवल प्रयुक्त ही की गई है, अपितु इसकी सहायता से बहुत से अव्याख्यात तत्त्वों की व्याख्या भी की जा चुकी है। वस्तुतः वैचारिक पद्धति से विकसित अनेकान्तवाद बौद्धों के शून्यवाद एवं वैज्ञानिकों के सापेक्षवाद से भी श्रेष्ठतर तत्त्वज्ञानोपाय है। दृष्टिकोणों या मानकों की संख्या इतनी है कि वस्तु का स्वरूप परस्पर विरोधी धर्म-समागम के रूप में लक्षित होता है एवं निरपेक्ष रूप से उसे निरूपित करना कठिन हो जाता है । इसीलिए अनेकान्त के सात मंगों में अवक्तव्यता का समावेश हुआ है। सापेक्षवाद पर आधारित विज्ञान ने वस्तु के मूल कण-इलैक्ट्रान-के स्वरूप-निर्धारण के सम्बन्ध में जितने . भी प्रयोग किये, उससे उसके अभिलक्षणन की जटिलता ही बढ़ी। उदाहरणार्थ, पहले जहाँ उसे कण माना जाता था, वहाँ वह तरंग माना जाने लगा। उसमें कण और तरंग दोनों के गुण पाये जाते हैं, अतः उसे तरंग-कण कहा जाने लगा। इतने पर भी उसका अभिलक्षण नहीं किया जा सका, क्योंकि वह इतना लघु है कि उस पर आँख की पलक मारने का भी प्रभाव पड़ता है। उसका भार १०-२० ग्राम है और आकार १०-१० से०मी० है। फलतः प्रायोगिक दृष्टि से उसका रंग, रूप, स्पर्श, स्थिति आदि कुछ भी नहीं निर्धारित किये जा सकते । अत: जर्मन-वैज्ञानिक हीसेनवर्ग ने अनिश्चायकतावाद की प्रस्तावना की, जिसके अनुसार वस्तु का मूल स्वरूप निश्चित रूप से नहीं निर्धारित किया जा सकता । जैनदर्शन का अवक्तव्यवाद इससे आगे जाता है। उसके अनुसार वस्तु को विभिन्न विवक्षाओं से निरूपित किया जा सकता है लेकिन निरपेक्ष रूप से वह अवक्तव्य ही है। उसका सही स्वरूप वचनों की सीमा में नहीं आता। अवक्तव्यवाद के विषय में जगत् को बहुत कम ज्ञान है फिर भी इसका महत्त्व भौतिकशास्त्र की दृष्टि से बहुत व्यापक है । इस पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि एक बार अवक्तव्यत्व के अध्यारोपण से प्रयोग-सरणि की परम्परा में निराशावाद आ सकता है, लेकिन यह तो अनिश्चायकतावाद पर भी लागू होता है। वस्तुतः 'अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति' की विवक्षायें तो प्रयोग-सरणि को प्रोत्साहन ही देती हैं । अवक्तव्यवाद न केवल भौतिक तत्त्वों पर ही प्रयुक्त होता है, नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए भी इसका सामाजिक और राष्ट्रीय उपयोग है । वस्तुतः यह सर्व-धर्म-समभाव एवं उदार दृष्टिकोण का प्रतीक है। यह एक-दूसरे के प्रति समादर एवं सद्भावना को जन्म देता है। संसार के विभिन्न दर्शनों में, विभिन्न प्रकरणों में, वस्तुओं में परस्पर विरोधी धर्मों का अस्तित्व तो प्रतिपादित किया गया है, लेकिन ऐसे सहअस्तित्व को जीवन में उतारने के लिए प्रेरणा नहीं दी गई है । जैनदर्शन इस क्षेत्र में अकेला ही दीपशिखा का काम करता है। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य ___ बीसवीं सदी की अप्रत्याशित वैज्ञानिक प्रगति के युग में कोई इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता कि आज जैसे वैज्ञानिक सिद्धान्त पच्चीस सौ वर्ष पूर्व ही विकसित कर लिये गये थे। विश्व में गति एवं स्थिति के माध्यम के रूप में धर्म और अधर्म द्रव्य की बात इसी कोटि में आती है। ये माध्यम स्वयं निष्क्रिय हैं, अरूपी हैं और शाश्वत हैं लेकिन ये वस्तुओं के गमन और स्थगन में सहायक होते हैं। वस्तुतः वैज्ञानिकों ने देखा कि ध्वनि आदि प्राकृतिक ऊर्जायें किसी न किसी माध्यम में ही चलती हैं, शून्य में नहीं। लेकिन आकाश में कुछ ऊँचाई पर जाने के बाद वायु नहीं रहती। वह निर्वात स्थान है। फिर वहाँ कैसे इनका संचलन होगा? इसके लिए एक अक्रिय ईथर माध्यम की कल्पना की गई जो धर्म द्रव्य का अनुरूपी है। इसी प्रकार गुरुत्वाकर्षण एवं जड़ता के सिद्धान्त अधर्म द्रव्य के अनुरूपी है। इन द्रव्यों के अस्तित्व के लिए जल-मछली और छाया-पथिक का दृष्टान्त दिया जाता है जो बहुत ही उपयुक्त है। लेकिन इन दृष्टान्तों से इन द्रव्यों को मूर्तिक नहीं माना जाता। ये वस्तुत: अरूपी और अमूर्त हैं। ये बातें मिलर, माइकोलसन, न्यूटन और आइन्स्टीन के विचारों और प्रयोगों से सत्य सिद्ध हुई हैं । यह सही है कि गति माध्यम के रूप में ईथर को जिस प्रकार मान्यता मिली है, स्थिति माध्यम के रूप में गुरुत्वाकर्षण को उतनी स्पष्ट मान्यता नहीं मिली है, फिर भी सापेक्षवादी विचारधारा के अनुसार गुरुत्वाकर्षण ही अधर्म द्रव्य का अनुरूपी हो सकता प्य . . . 00008 www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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